सदियों तक चली घुसपैठी आक्रमणकारियों के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध की गाथा:- 13
कहते हैं कि ‘जब दमन अधिक बढ़ता है, तभी उसके साथ अंत का भी बीज भी बोया जाता है।’
सन् 1938 में उड़ीसा में आम जनता में भारी असंतोष बढ़ता जा रहा था। इसका परिणाम ये हुआ कि अलग-अलग जगहों पर लोग जमींदारों और अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए ‘प्रजामंडल’ बनाने लगे।
ये प्रजामंडल साहसी लोगों का एक समूह होता था जो अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाता था। ऐसे प्रजामंडल और इनमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी। प्रजामंडल के नीलगिरी के समूह ने किसानों के अधिकारों की बात को लेकर आंदोलन किया। अंग्रेजों ने इसका जवाब और अधिक दमन के साथ दिया।
बाजी राउत भी अन्य कई युवाओं के साथ ‘कानाल प्रजामंडल’ से जुड़ गए। ‘ढेंकानाल प्रजामंडल’ ने अंग्रेजी सरकार को एक ज्ञापन दिया, जिसमें उन्होंने एकत्र होने और बोलने की स्वतन्त्रता की माँग की। इसके अतिरिक्त कुछ और भी माँगें की गयीं थीं। अंग्रेजों ने यह ज्ञापन ठुकरा दिया और प्रजामंडल के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की। कई लोग जेल में ठूंस दिए गए। खुले में लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दी गई। साथ ही और भी कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए। परंतु ढेंकानाल प्रजामंडल ने इस बात की परवाह नहीं की। उन्होंने जगह-जगह एकत्रित होना और अपनी माँग उठाना जारी रखा।
कई जगह ब्रिटिश पुलिस ने निहत्थे और शान्तिपूर्ण ढंग से अपनी बात रख रहे लोगों पर गोलियाँ चलाईं, जिसमें कई लोग मारे गए और कई लोग घायल हो गए। जमींदारों की सहायता से कई गाँव जला दिए गए और स्त्रीयों के साथ ब्रिटिश पुलिस ने बलात्कार किए गए।
बाजी राउत ये सब देख रहे थे, और उनका बाल मन अंग्रेजों के प्रति क्रोध और प्रतिशोध से भरने लगा था।
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