लंदन में 1857 के स्वाधीनता संग्राम की वर्षगांठ “10 मई/इतिहास-स्मृति”
1857 का स्वाधीनता संग्राम भले ही सफल नहीं हुआ; पर उसकी स्मृति भारतीयों के मन में बस गयी। वर्षाें बीतने पर भी उसकी गूंज अंग्रेजों की नींद उड़ा देती थी। 1906 में विनायक दामोदर सावरकर बैरिस्टरी पढ़ने के लिए लंदन पहुंचे। वहां वे स्वाधीनता सेनानी श्यामजी कृष्ण वर्मा के ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे। यह भवन आजादी के दीवानों की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। उन्होंने 11 मई, 1907 को इस स्वाधीनता संग्राम की 50वीं वर्षगांठ (स्वर्ण जयंती) मनायी। अगले साल 10 मई, 1908 (रविवार) को फिर एक सार्वजनिक समारोह किया गया। ये दोनों ही कार्यक्रम ‘इंडिया हाउस’ में हुए।
10 मई, 1908 के आयोजन की सफलता के लिए एक निमंत्रण पत्र छापकर लंदन के उन मोहल्लों में छोटी-छोटी बैठकें की गयीं, जहां भारतीय लोग रहते थे। समारोह ही अध्यक्षता पेरिस निवासी स्वाधीनता सेनानी बैरिस्टर सरदार सिंह राणा ने की। वे वहां से इसके लिए विशेष रूप से आये थे। सभागार में सामने की ओर टंगा एक रक्तरंजित वस्त्र फूल मालाओं से सुसज्जित था। यह 1857 में भारतीय वीरों द्वारा बहाये गये रक्त का प्रतीक था। उस पर सुनहरे, सफेद, हरे और गुलाबी रंग से बहादुरशाह जफर, नानासाहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, मौलवी अहमदशाह, वीर कुंवर सिंह आदि योद्धाओं के नाम लिखे थे। कई अन्य वीरों के चित्र भी लगे थे। ताजे फूलों और अगरबत्ती की सुंगध सब ओर फैली थी। लोग समय से पहले ही आकर सभागार में बैठ गये।
ठीक चार बजे देशभक्त वर्मा ने ‘वंदेमातरम्’ गीत गाया। इसके साथ ही अध्यक्ष तथा अन्य विशिष्ट अतिथि सभागार में आ गये। उनके मंचासीन होने पर देशभक्त आयर बी.ए. ने राष्ट्रीय प्रार्थना का गायन किया। केवल लंदन ही नहीं, तो कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड, सारेंस्टर, रेडिंग आदि स्थानों से भी लोग आये थे। इसके बाद पहले वक्ता के रूप में विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम की प्रासंगिकता एवं उपलब्धि बताते हुए बहादुरशाह एवं नानासाहब को याद किया। इस पर सबने खड़े होकर ‘वंदे मातरम्’ तथा तीन बार उन वीरों का जयघोष किया। फिर देशभक्त खान, देशभक्त दास, मास्तर (पारसी), देशभक्त येरुलक (यहूदी) आदि वक्ताओं ने राजा कुंवरसिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि स्वाधीनता सेनानियों को स्मरण किया। इसके बाद अध्यक्षजी का प्रेरक भाषण हुआ और फिर सबने स्वार्थ त्याग की शपथ ली।
इस समारोह के लिए बनी ‘स्मृति मुद्रा’ सब श्रोताओं ने अपने सीने पर लगा रखी थी। शपथ लेते समय किसी ने एक माह का भोजन छोड़ा, तो किसी ने शराब, धूम्रपान, थियेटर आदि छोड़कर उस पैसे को 1857 के वीरों की स्मृति में बने कोष में देने का निश्चय किया। पेरिस से मैडम भीखाजी कामा ने एक प्रेरक पत्र तथा कोष के लिए 75 रु. भेजे। अध्यक्षजी ने भी मई मास की पूरी आय इस कोष में अर्पित की। श्रीमती दत्त ने एक बार फिर से राष्ट्रगीत गाया।
अंत में प्रसाद वितरण के रूप में रोटियां बांटी गयीं। 1857 में ‘रोटी और कमल’ ही क्रांति का प्रतीक चिन्ह बने थे। ऐसी रोटियां गुप्त रूप से भारत की सैन्य छावनियों में बांटी जाती थीं। इन्हें खाकर सैनिक स्वाधीनता के लिए लड़ने और मरने की शपथ लेते थे। इसलिए उस समारोह में भी रोटियों का प्रसाद ही बांटा गया। इससे सबमें विशेष प्रकार का उत्साह छा गया। इसके बाद समारोह विधिवत समाप्त हुआ। जाते समय लोग इतने उत्साहित थे कि वे बार-बार वंदे मातरम् और 1857 के सेनानियों के नाम लेकर जयघोष कर रहे थे।
इस समारोह में धनसंग्रह के लिए कुछ झोले बनाये गये थे। कई लोगों ने उन्हें आयोजकों से लिया और अगले एक सप्ताह तक वे लंदन में रहने वाले भारतीयों के पास जाकर धन संग्रह करते रहे। इस प्रकार लंदन में 1857 के स्वाधीनता संग्राम की वर्षगांठ का यह समारोह अविस्मरणीय बन गया।
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