श्रुतम्

शिवदेवी तोमर-4

सदियों तक चली घुसपैठी आक्रमणकारियों के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध की गाथा-19

16 वर्षीय युवती जिसने सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में कई अंग्रेजी सैनिकों को मार गिराया…

सोलह वर्षीय शिवदेवी तोमर इन सब अत्याचारों की साक्षी थी। वह देख रही थी कि कैसे अपने ही देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों के साथ अंग्रेज बर्बरता पूर्ण व्यवहार कर रहे थे और पूरे क्षेत्र को श्मशान बनाने में लगे हुए थे। शिवदेवी तोमर के लिए ये सब असहनीय होता जा रहा था। उन्हें लड़ना नहीं आता था, परंतु ये सब देखकर उन्हें अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। मरने और मारने की भावना उनमें और उनके साथियों में प्रबल होने लगी।

उन्होंने अपनी एक सहेली किशन देवी और गाँव के अन्य हम उम्र साथियों के साथ मिलकर कुछ करने की सोची। इन सभी युवाओं ने फैसला किया कि वे अंग्रेजों पर आक्रमण करेंगे और अंतिम साँस तक लड़ेंगे। कई अन्य ग्रामीण भी उनके साथ हो लिए। जिसको जो हथियार मिला वो वही लेकर अंग्रेजों से लड़ने निकल पड़ा।
इन लोगों ने बड़ौत के पास अंग्रेज टुकड़ी पर अचानक धावा बोल दिया। शिवदेवी तोमर स्वयं एक तलवार लेकर इनका नेतृत्व कर रही थी। काली की तरह क्रोध से भरी वह अंग्रेज सैनिकों पर वार कर रही थी। अंग्रेज अचानक हुए इस आक्रमण से भौंचक्के रह गए। उन्हें बिल्कुल भी आशा नहीं थी कि बिजरोल में अपने 32 साथियों की फाँसी देखने के बाद ग्रामीणों में इतनी हिम्मत होगी। शिवदेवी तोमर और उनके साथियों ने कई अंग्रेजों को वहाँ मौत के घाट उतार दिया। सबसे अधिक साहस और वीरता से शिवदेवी ही लड़ी। उसने अपनी तलवार से कई अंग्रेजों के प्राण हर लिए।

इस लड़ाई में कई विद्रोही ग्रामीण शहीद हो गए और कई घायल हुए। शिवदेवी भी बहुत बुरी तरह घायल हुई। अंग्रेज इस अचानक हमले से बौखला गए थे और उस समय वहाँ से भाग गए।

गम्भीर रूप से घायल शिवदेवी ने अपने घावों के उपचार के दौरान दम तोड़ दिया। इस प्रकार एक और वीरांगना सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में आहुति चढ़ गई। देश को ऐसे वीर और वीरांगनाओं पर सदैव गर्व रहेगा।

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