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विट्ठल भक्त : जैतुनबी “9 जुलाई/पुण्य-तिथि”


विट्ठल भक्त : जैतुनबी “9 जुलाई/पुण्य-तिथि”

कुछ लोगों का जन्म भले ही किसी अन्य मजहब वाले परिवार में हुआ हो; पर वे अपने पूर्व जन्म के अच्छे कर्म एवं संस्कारों के कारण हिन्दू मान्यताओं के प्रति आस्थावान होकर जीवन बिताते हैं। पुणे के पास बारामती जिले में स्थित मालेगांव (महाराष्ट्र) में एक मुसलमान घर में जन्मी जैतुनबी ऐसी ही एक महिला थी, जिन्होंने विट्ठल भक्ति कर अपना यह जन्म और जीवन सार्थक किया।

जैतुनबी को बचपन में किसी ने उपहार में श्रीकृष्ण की एक प्रतिमा भेंट की। तब से ही उनके मन में श्रीकृष्ण बस गये और वे उनकी उपासना में लीन रहने लगीं। दस वर्ष की अवस्था में उन्होंने श्री हनुमानदास जी दीक्षा ले ली। उनका अनुग्रह प्राप्त कर वे प्रतिवर्ष आलंदी से पंढरपुर तक पैदल तीर्थयात्रा करने लगीं। उनके गुरु श्री हनुमानदास जी ने उनकी श्रद्धा एवं भक्ति देखकर उन्हें जयरामदास महाराज नाम दिया।

जैतुनबी ने अपना सारा जीवन सन्तों के सान्निध्य में उनके प्रवचन सुनते हुए व्यतीत किया। उनके मन पर संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की वाणी का काफी प्रभाव था। प्रभु भक्ति को ही जीवन का उद्देश्य बना लेने के कारण वे विवाह के बंधन में नहीं फंसीं। अपने गांव में कथा-कीर्तन करने के साथ ही वे साइकिल से आसपास के गांवों में जाकर भी कीर्तन कराती थीं। उनकी कीर्तन की शैली इतनी मधुर थी कि उसमें हजारों पुरुष और महिलाएं भक्तिभाव से शामिल होते थे। लोग उन्हें आग्रहपूर्वक अपने गांव में बुलाते भी थे।

संत ज्ञानेश्वर की पालकी के साथ प्रतिवर्ष आलंदी से पंढरपुर Pतक जाने वाली उनकी टोली उनके नाम से ही जानी जाती थी। अपनी विट्ठल भक्ति को उन्होंने राष्ट्रभक्ति से भी जोड़ दिया था। उनके मन में देश की गुलामी की पीड़ा भी विद्यमान थी। स्वाधीनता से पूर्व वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। उन दिनों वे कीर्तन में भजन के साथ देशभक्ति से परिपूर्ण गीत भी जोड़ देती थीं। उनके इन गीतों की सराहना गांधी जी ने भी की थी।

धार्मिक गतिविधियों के साथ ही वे सामाजिक जीवन में भी सक्रिय रहती थीं। वे शिक्षा को स्त्रियों के लिए बहुत आवश्यक मानती थीं। स्त्री शिक्षा के विस्तार के लिए किये गये उनके प्रयास भी उल्लेखनीय हैं। इसके साथ ही वे कालबाह्य हो चुकी रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों की घोर विरोधी थीं। अपने कीर्तन एवं प्रवचनों में वे इन पर भारी चोट करती थीं। इस प्रकार उन्होंने कथा-कीर्तन का उपयोग भक्ति जागरण के साथ ही समाज सुधार के लिए भी किया।

यद्यपि जैतुनबी का सारा जीवन एक अच्छी हिन्दू महिला की तरह बीता; पर उनके मन में इस्लाम के प्रति भी प्रेम था। वे व्रत और कीर्तन की तरह रोजे भी समान श्रद्धा से रखती थीं। यद्यपि कट्टरपंथी मुसलमान इससे नाराज रहते थे। उन्हें कई बार धमकियां भी मिलीं; पर जैतुनबी अपने काम में लगी रहीं। उनके कीर्तन और प्रवचन से प्रभावित होकर लगभग 50,000 लोग उनके शिष्य बने। आलंदी एवं पंढरपुर में उनके मठ भी हैं।

वृद्धावस्था तथा अनेक रोगों का शिकार होने पर भी वे प्रतिवर्ष तीर्थयात्रा पर जाती रहीं। वर्ष 2010 में भी उन्होंने यात्रा पूरी की। संत ज्ञानेश्वर की पालकी के पुणे पहुंचने पर 9 जुलाई, 2010 को अपनी जीवन यात्रा पूरी कर वे अनंत की यात्रा पर चल दीं।

80 वर्ष की आयु तक विट्ठल भक्ति की अलख जगाने वाली जैतुनबी उर्फ जयरामदास महाराज का अंतिम संस्कार उनके जन्मस्थान मालेगांव में ही किया गया, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लेकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।

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