पिंजरे की मैना चन्द्रकिरण सोनरेक्सा “19 अक्तूबर/जन्म-दिवस”
हिन्दी की प्रख्यात कहानीकार चंद्रकिरण सौनरेक्सा नये विचारों को सदा सम्मान देने वाली लेखिका थीं। इसीलिए अपने लम्बे और अविराम लेखन से उन्होंने हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया। उनका जन्म 19 अक्तूबर, 1920 को नौशहरा छावनी, पेशावर में हुआ था। परिवार में आर्य समाज का प्रभाव होने के कारण वे कुरीतियों और रूढ़ियों की सदा विरोधी रहीं।
यद्यपि उनकी लौकिक शिक्षा बहुत अधिक नहीं हो पायी; पर मुक्त परिवेश मिलने के कारण उन्होंने एक व्यापक अनुभव अवश्य पाया था। उन्होंने घर बैठे ही ‘साहित्य रत्न’ की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा निजी परिश्रम से बंगला, गुजराती, गुरुमुखी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाएं सीखीं और इनमें निष्णात हो गयीं।
पढ़ने की अनूठी लगन और कुछ करने की चाह उनमें बचपन से ही थी। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्होंने कथा साहित्य का गहरा अध्ययन किया। बंकिमचंद्र, शरदचंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, सुदर्शन कौशिक जैसे तत्कालीन विख्यात कथाकारों की रचनाओं को पढ़ा। इस अध्ययन और मंथन ने उन्हें लेखक बनने के लिए आधार प्रदान किया।
चंद्रकिरण जी ने छोटी आयु में साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। 11 वर्ष की अवस्था से ही उनकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं थीं। वे ‘छाया’ और ‘ज्योत्सना’ उपनाम से लिखतीं थीं। आगे चलकर तो धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, चांद, माया आदि में भी उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुईं।
उनकी कहानियों में सामाजिक विसंगति, विकृति, विद्रूप, भयावहता, घुटन, संत्रास आदि का सजीव चित्रण हुआ है। निर्धन और मध्यवर्गीय नारी को कैसे तनाव, घुटन और पारिवारिक दबाव झेलने पड़ते हैं, इसका जीवंत और मर्मस्पर्शी वर्णन उन्होंने किया है। उनका मानना था कि लेखक जो देखता और भोगता है, उस पर लिखना उसका लेखकीय दायित्व है।
चंद्रकिरण जी ने 1956 से 1979 तक वरिष्ठ लेखक के रूप में आकाशवाणी, लखनऊ में काम किया। इस दौरान उन्होंने आकाशवाणी की विविध विधाओं नाटक, वार्ता, फीचर, नाटक, कविता, कहानी, परिचर्चा, नाट्य रूपांतरण आदि पर आधिकारिक रूप से अपनी लेखनी चलाई। बाल साहित्य भी उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा।
उनकी कृति ‘दिया जलता रहा’ का धारावाहिक प्रसारण बहुत लोकप्रिय हुआ। उनकी कहानियों का भारतीय भाषाओं के साथ ही चेक, रूसी, अंग्रेजी तथा हंगेरियन भाषाओं में भी अनुवाद हुए। अपनी रचनाओं के लिए उन्हें अनेक सम्मान मिले। इनमें सेक्सरिया पुरस्कार, सारस्वत सम्मान, सुभद्राकुमारी चौहान स्वर्ण पदक तथा हिन्दी अकादमी की ओर से सर्वश्रेष्ठ हिन्दी लेखिका सम्मान प्रमुख हैं।
चंद्रकिरण जी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। इसका प्रभाव भी उनके लेखन पर दिखाई देता है। 2008 में उनकी आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ प्रकाशित हुई, जिसका साहित्य जगत में व्यापक स्वागत हुआ। उसका हर पृष्ठ तथा प्रत्येक घटना मन को छू जाती है। उससे पता लगा कि विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों के बाद भी उन्होंने अपने भीतर के चिंतन, लेखन व सृजन को मरने नहीं दिया। इस प्रकार उन्होंने न केवल बाह्य अपितु आंतरिक रूप से भी भरपूर संघर्ष किया।
17 मई, 2009 को 89 वर्ष की आयु में लखनऊ में उनका देहांत हुआ। इस प्रकार उन्मुक्त गगनाकाश में विचरने के लिए वह पिंजरे की मैना अपने तन और मन रूपी सभी बंधनों से मुक्त हुई।
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