“सिद्धु-कान्हू” अंग्रेजों के खून से शौर्य गाथा लिखने वाले महानायक
उनके गले पर फांसी के फंदे का जितना दबाव बढ़ता जाता था, उनके इरादे उतने ही मजबूत होते जाते थे। न चेहरे पर मौत का खौफ और न कोई शिकन, उनकी आंखों में चमक थी और सीना फक्र से चौड़ा, उन्हें खुशी थी कि वे वीरों सी वीरगति पाकर अमर हो रहे थे।
यह कहानी 1855 ई. के संथाल हुल क्रांति के नायक रहे सिद्धु व कान्हू नाम के दो भाईयों की है, जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता पोषित साहूकारी व्यवस्था के खिलाफ हथियार उठाकर उनका मुंहतोड़ जवाब दिया। और साथ ही अपनी मिट्टी, अपनी मातृभूमि के लिए मौत को गले लगा लिया।
1820 ई. का समय रहा होगा, जब तत्कालीन बिहार के भागलपुर जिले के कलेक्टर अगस्टस क्वीस लैंड के आदेश पर कंपनी का एक अधिकारी फ्रांसिस बुकानन राजमहल की पहाड़ियों को पार करके मैदानी इलाके में आया।
यह एक ऐसा क्षेत्र था जहां कई जनजातीय गांव थे। भोगनाडीह इन्हीं गांवों में से एक था, जहां एक जनजाती परिवार में सिद्धू-कान्हू ने अपनी आंखे खोली थी। जिस कालखंड में इन दोनों ने जन्म लिया, उस समय वहां के जनजाती जंगल से लकड़ियां लाकर बाजार में बेचने तथा खेती जैसे कामों द्वारा अपना जीवन चलाते थे। मनोरंजन के लिए शिकार करना पसंद करते थे।

आंदोलन का कारण : फ्रांसिस बुकानन’ का आगमन और…
सिद्धू-कान्हू का बचपन भी इसी वातावरण में बीता। वक्त के साथ दोनों भाई बड़े हुए, तो उन्होंने देखा कि फ्रांसिस बुकनान नाम का एक अंग्रेज अधिकारी उनके क्षेत्र में आया और उसने वहां झूम कृषि व्यवस्था की अपार संभावना वाली एक रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट को आधार मानकर उसके सीनियर क्विसलैंड ने एक फरमान जारी कर दिया। इसके तहत वनवासियों को व्यवस्थित खेती के लिए तैयार किया गया। साथ ही स्थाई बंदोबस्त के दायरे में लाया गया, जिसका वहां के लोगों पर बुरा असर पड़ा।
असल में झूम खेती वनवासियों के लिए उलझन भरी थी। उस पर स्थाई बंदोबस्त के आदेश ने उनके वकीलों को घोर संकट में डाल दिया। यह कम था कि अंग्रेजों द्वारा एक और शोषणकारी व्यवस्था बनाई गई, उसके अंतर्गत वनवासियों को जंगल से कोई भी संसाधन निकालने की अनुमति नहीं होगी तथा शिकार के लिए भी वे वनों में प्रवेश नहीं कर पाएंगे। सिद्धु-कान्हू के गांव भोगनाडीह में भी यह व्यवस्था लागू की गई। इसलिए उनका प्रभावित होना लाजिमी था। यही कारण था, उनके मन में अंग्रेजों के प्रति असंतोष का भाव पनप चुका था।
‘करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो’ का नारा
वैसे तो स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई सन् 1857 को मानी जाती है, मगर इससे पहले ही वर्तमान के झारखंड राज्य के संथाल परगना में संथाल हूल और संथाल संग्राम के द्वारा अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। सिद्धू-कान्हू दोनों भाईयों ने अंग्रेजों के दलाल जमींदारों और अंग्रेजी सत्ता की शोषण नीति को अच्छी तरह समझ चुके थे। सिद्धू-कान्हू दो भाईयों के नेतृत्व में 30 जून 1855 को वर्तमान साहेबगंज जिले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस संग्राम के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की थी करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ों।
इतिहासकारों के मुताबिक संथाल परगना के लोग प्रारंभ से ही वनवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। इसका जमींदारों और बाद में अंग्रेजों ने खूब लाभ उठाया। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए संथाल पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी। इसके बाद न केवल यहां के लोगों का शोषण होने लगा, बल्कि उन्हें मालगुजारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहां के लोगों में संग्राम पनप रहा था। नागपुरी साहित्यकार और इतिहासकार बी.पी. केसरी कहते हैं कि यह संग्राम भले ही संथाल हूल हो, परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषक अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता का आंदोलन ही था।

आंदोलन की शुरुआत, मालगुजारी न देने का निर्णय
इस जनआंदोलन के नायक भगनाडीह निवासी भूमिहीन किंतु ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिद्धू-कान्हू-चांद-भैरव थे। वे कहते हैं कि इन चारों भाईयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दे दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में बीस उंगलियां थी ओर बताया है कि जुमीदार, महाजोन, पुलिस और राजरेन अमलों को गुजुकमा जमीदार, पुलिस राज के अमले और सूदखोरों का नाश हो। वे बताते हैं कि संथाली बोंगा की ही पूजा अर्चना करते थे। इस संदेश को डूगडूगी पिटवाकर गांव-गांव तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल की टहनी को लेकर गांव-गांव की यात्रा की। आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत स्वरूप देने के लिए 30 जून 1855 को चार सौ गांव के लोग भगनाडीह गांव पहूंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे।

अंग्रेजों को संथालों ने दिया मुंहतोड़ जवाब
इसके बाद अंग्रेजों ने इन चारों भाईयों को बंदी बनाने का आदेश दिया, परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काटकर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय व्याप्त हो गया था। भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी, इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी और जमकर धर-पकड़ की गई और सेनानियों पर जमकर गोलियां बरसाई गई। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल-लॉं लगा दिया गया। आंदोलनकारियों को पकड़वाने के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गई। बहराईच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव दोनों शहीद हो गए। प्रसिद्ध इतिहासकार हंटरपने अपनी पुस्तक एनल्स ऑफ रूलर्स में लिखा है कि संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिसके कारण डूगडूगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।
जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा वह लड़ता रहा। पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेजों का एक भी सिपाही नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिंदा नहीं हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हजार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विस्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी बंदी बना लिया गया और फिर 26 जुलाई 1855 को दोनों भाईयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई। आज के दौर में सिद्धू-कान्हू की नवमीं पीढ़ी है, जो दो वक्त की रोटी के लिए भी तरस रही है। इसके परिजनों को सरकार द्वारा एक टेक्टर दिया गया, किंतु रोटी के जुगाड़ में उसे भी बेच दिया गया और सिद्धू के परिजन उसी टेक्टर पर चालक की नौकरी कर रहे हैं।
इन चारों भाईयों ने संथाल परगना में जमींदारों और अंग्रेजों के विरूद्ध जिस भीषण संग्राम का सूत्रपात किया, पेपर में केवल उसको पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन महावीरों ने उस समय जब इनके परिवार में एक इंच भूमि नहीं थी, इनके पिता भूमिहीन थे लेकिन गांव के मुखिया थे, केवल मातृभूमि के प्रति अदम्य श्रद्धा और गरीब लोगों के प्रति भ्रष्ट और बेईमान जमींदारों और क्रुर अंग्रेजों के शोषण से त्राही-त्राही कर रही थी, उन्हें इस शोषण से बचाने के लिए इन महावीरों ने उन अंग्रेजों के विरूद्ध जिनके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था, इन महावीरों ने यु़द्ध के ललकारा और युद्धभूमि में उनके दांत खट्टे कर दिए। जनजाति समाज पूरे देश का नहीं, संपूर्ण विश्व का है। इन महावीरों के इस अप्रतिम बलिदान पर अत्यधिक गौरवान्वित है।

सिद्धू – कान्हू की जीवनी
संथाल हूल का नेतृत्व भोगनाडीह निवासी चुन्नी मांझी के चार पुत्रों ने किया। ये थे सिद्धू कान्हू, चाँद और भैरव। हूल के समय कान्हू की उम्र 35 वर्ष, चाँद की आयु 30 वर्ष और भैरव की उम्र 20 वर्ष बतायी जाती हैं। सिद्धू सबसे बड़ा था किन्तु उसकी जन्मतिथि 1825 के आस – पास मानी गई है। जब सिद्धू – कान्हू ने शोषण के विरूद्ध विद्रोह करने का संकल्प ले लिया तो जन समूह को एकजुट करने तथा एकत्रित करने के लिए परंपरागत ढंग से अपनाया। दूगडूगी पिटवा दी और साल टहनी का संदेशा गाँव – गाँव भेजवाया। साल टहनी क्रांति संदेश का प्रतीक है। 30 जून, 1855 की तिथि भगनाडीहा में विशाल सभा रैली के लिए निर्धारित की गई। तीर धनुष के साथ लोगों को सभा में लाने की जिम्मेवारी मांझी/परगनाओं को सौंपी गई। संदेश चारों ओर फ़ैल गया। दूरदराज के गांवों से पद – यात्रा करते लोग चल पड़े तीर – धनुष और पारंपरिक हथियारों से लैस कोई बीस हजार संथाल 30 जून को भगनाडीह पहुँच गये। इस विशाल सभा में सिद्धू कान्हू के अंग्रेज हमारी भूमि छोड़ के नारे गूँज उठे। कभी तिलक ने कहा था- स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था – तुम हमें खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा और गाँधी ने नारा दिया था – करो या मरो। इनसे पहले ही उसी तर्ज पर सिद्धू ने ललकारा था – करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ दो।

सिद्धू का लोकतंत्र में विश्वास था। उसने समझ लिया था कि केवल संथालों द्वारा जन – आंदोलन संभव नहीं है। इसलिए औरों का भी सहयोग लिया। इस विद्रोह में अन्य लोग भी जैसे कुम्हार, चमार, ग्वाला, तेली, लोहार, डोम और मुस्लिम भी शामिल हो गये।
सिद्धू – कान्हू ने हूल को सजीव और सफल बनाने के लिए धर्म का भी सहारा लिया। मरांग बूरू (मुख्य देवता) और जाहेर – एस (मुख्य देवी) के दर्शन और उनके आदेश (अबुआ राज स्थापित करने के लिए) की बात को प्रचारित कर लोगों की भावना को उभारा। सखुआ डाली घर – घर भेजवा का लोगों तक निमंत्रण पहूंचाया कि मुख्य देवी – देवता का आशीर्वाद लेने के लिए 30 जून को भगनाडीह में जमा होना है। फलस्वरूप 30 जून को भगनाडीह में कोई 30 हजार लोग सशस्त्र इकट्ठे हो गये। उस सभा में सिद्धू को राजा, कान्हू को मंत्री, चाँद को प्रशासक और भैरव को सेनापति मनोनीत कर नये संथाल राज्य के गठन की घोषणा कर दी गई। महाजन, पुलिस, जमींदार, तेल अमला, सरकारी कर्मचारी के साथ ही नीलहे गोरों को मार भगाने का संकल्प लिया गया तथा लगान नहीं देने व सरकारी आदेश हिन् मानने का निश्चय किया गया। नीलहे गोरों ने नील खेतों के लिए संथाली को उत्साहित किया था पर शीघ्र ही उनका शोषण शुरू हो गया था जो बढ़ता ही गया। संथाल उनसे भी क्रोधित थे।
इसी समय एक घटना घटी। रेल निर्माण कार्य से जुड़े एक अंग्रेज ठीकेदार ने तीन संथाली मजदूरिनों का अपरहण कर लिया। यह आग में घी का काम किया। क्रांति की शुरूआत हो गई। कुछ संथालों ने अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया। तीन अंग्रेज मारे गये। और अपहृत स्त्रियाँ मुक्त कर ली गई। हूल यात्रा शुरू हुई तो कलकत्ता की ओर बढ़ती गई। गाँव के गाँव लुटे गए, जलाये गये और लोग मारे जाने लगे। कोई 20 हजार संथाली युवकों ने अंबर परगना के राजभवन पर धावा बोल दिया और 2 जूलाई को उस पर कब्जा का लिया।
फूदनीपुर, कदमसर और प्यालापुर के अंग्रेजों को मार गिराया गया। निलहा साहबों की विशाल कोठियों पर अधिकार पर अधिकार कर लिया गया। 7 जुलाई को दिघी थाना के दारोगा और अंग्रेजों के पिट्टू, महेशलाल दत्त की हत्या कर दी गई। तब तक 19 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। सुरक्षा के लिए बनाये गये मारटेल टाबर से अंधाधुंध गोलियां चलाकर संथाल सैनिकों को भारी क्षति पहुँचायी गई। फिर भी बन्दूक का मुकाबला तीर – धनुष करता रहा। संथालों ने वीरभूमि क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और वहां से अंग्रेजों को भगा दिया। वीरपाईति में अंग्रेज सैनिकों की करारी हारी हुई। रघुनाथपुर और संग्रामपुर की लड़ाई में संथाली की सबसे बड़ी जीत हुई। इस संघर्ष में एक यूरोपियन सेनानायक, कुछ स्वदेशी अफसर और 25 सिपाही मार दिए गये।

अंग्रेजों ने लागू की मार्शल लॉ
भागलपुर कमिश्नरी के सभी जिलों में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। विद्रोहियों की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कार की घोषणा कर दी गई। उनसे मुकाबला के लिए भी जबरदस्त बंदोबस्त हुआ। बड़हैत की लड़ाई में चाँद भैरव कमजोर पड़ गये और जब अंग्रेजों की गोलियों के शिकार हो गए। अब अंग्रेजों ने सिद्धू – कान्हू के कुछ साथी लालच में आकर अंग्रेजों से मिल गये। गद्दारों के सहयोग से आखिर उपरबंदा गाँव के पास कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया। बड़हैत में 19 अगस्त को सिद्धू को भी पकड़ा लिया गया।
मेहर शकवार्ग ने उसे बंदी बनाकर भागलपुर जेल ले जाया गया। दोनों भाईयों को खुलेआम फांसी दे दी गई। सिद्धू को बड़हैत में जिस स्थान पर दरोगा मारा गाया था और कान्हू को भगनाडीह में ही फांसी पर चढ़ा दिया गया। इसके साथ ही संथाल विद्रोह का सशक्त नेतृत्व समाप्त हो गया।
30 नवंबर को कानूनन संथाल परगना जिला की स्थापना हुई और इसके प्रथम जिलाधीश के एशली इडेन बनाये गये। पूरे देश से भिन्न कानून से संथाल परगना का शासन शुरू हुआ।
संथाल हूल का तो अंत हो गया। किन्तु दो वर्ष के बाद ही 1857 में होने वाले सिपाही विद्रोह – प्रथम स्वतंत्रता संग्राम – की पीठिका तैयार कर दी गई। आज भी इन चारों भाईयों पर छोटानागपुर को गर्व है और संथाली गीतों में आज भी सिद्धू – कान्हू याद किये जाते हैं। इन शहीदों की जयंती संथाल हूल दिवस के रूप में मनायी जाती है।

बलिदान तिथि पर मतभेद
अधिकांश विद्वानों के अनुसार, 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई। इस तरह सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव, ये चारों भाई सदा के लिए भारतीय इतिहास में अपना अमिट स्थान बना गए।
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