जन्म दिवस हर दिन पावन

महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ “16 फरवरी/जन्म-दिवस”

महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ “16 फरवरी/जन्म-दिवस”

महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 16 फरवरी, 1896 (वसंत पंचमी) को हुआ था। यह परिवार उत्तर प्रदेश में उन्नाव के बैसवारा क्षेत्र में ग्राम गढ़ाकोला का मूल निवासी था; पर इन दिनों इनके पिता बंगाल में महिषादल के राजा के पास पुलिस अधिकारी और कोषप्रमुख के पद पर कार्यरत थे।

इनकी औपचारिक शिक्षा केवल कक्षा दस तक ही हुई थी; पर इन्हें शाही ग्रन्थालय में बैठकर पढ़ने का भरपूर अवसर मिला। इससे इन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा बंगला भाषाओं का अच्छा ज्ञान हो गया।

सूर्यकान्त को बचपन से ही विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाएँ पढ़ने में बहुत आनन्द आता था। यहीं से उनके मन में काव्य के बीज अंकुरित हुए। केवल 15 वर्ष की छोटी अवस्था में उनका विवाह मनोरमा देवी से हुआ। इनकी पत्नी ने भी इन्हें कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। इनके एक पुत्र और एक पुत्री थी; पर केवल 18 वर्ष की आयु में इनकी पुत्री सरोज का देहान्त हो गया। उसकी याद में निराला ने ‘सरोज स्मृति’ नामक शोक गीत लिखा, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने हाथ के पैसे खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। एक बार किसी कार्यक्रम में उन्हें बहुत कीमती गरम चादर भेंट की गयी; पर जब वे बाहर निकले, तो एक भिखारी ठण्ड में सिकुड़ रहा था। निराला जी ने वह चादर उसे दे दी। उनकी इस विशालहृदयता के कारण लोग उन्हें महाप्राण निराला कहने लगे। निर्धनों के प्रति इस करुणाभाव से ही उनकी ‘वह आता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता…’ नामक विख्यात कविता का जन्म हुआ।

निराला ने हिन्दी साहित्य को कई अमूल्य कविताएँ व पुस्तकें दीं। उन्होंने कविता में मुक्तछन्द जैसे नये प्रयोग किये। कई विद्वानों ने इस व्याकरणहीन काव्य की आलोचना भी की; पर निराला ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उनके कवितापाठ की शैली इतनी मधुर एवं प्रभावी थी कि वे मुक्तछन्द भी समाँ बाँध देते थे। यद्यपि उन्होंने छन्दबद्ध काव्य भी लिखा है; पर काव्य की मुक्तता में उनका अधिक विश्वास था। वे उसे नियमों और सिद्धान्तों के बन्धन में बाँधकर प्राणहीन करने के अधिक पक्षधर नहीं थे।

उस समय हिन्दी साहित्य में शुद्ध व्याकरण की कसौटी पर कसी हुई कविताओं का ही अधिक चलन था। अतः उनकी उन्मुक्तता को समकालीन साहित्यकारों ने आसानी से स्वीकार नहीं किया। कई लोग तो उन्हें कवि ही नहीं मानते थे; पर श्रोता उन्हें बहुत मन से सुनते थे। अतः झक मारकर बड़े और प्रतिष्ठित साहित्यकारों को भी उन्हें मान्यता देनी पड़ी।

काव्य की तरह उनका निजी स्वभाव भी बहुत उन्मुक्त था। कभी वे कोलकाता रहे, तो कभी वाराणसी और कभी अपनी पितृभूमि गढ़ाकोला में। लखनऊ से निकलने वाली ‘सुधा’ नामक पत्रिका से सम्बद्ध रहने के कारण वे कुछ समय लखनऊ भी रहे। यहीं पर उन्होंने ‘गीतिका’ और ‘तुलसीदास’ जैसी कविता तथा ‘अलका’ एवं ‘अप्सरा’ जैसे उपन्यास लिखे। उन्होंने कई लघुकथाएँ भी लिखीं। ‘राम की शक्ति पूजा’ उनकी बहुचर्चित कविता है।

अपने अन्तिम दिनों में निराला जी प्रयाग में बस गये। सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा और निराला के कारण प्रयाग हिन्दी काव्य का गढ़ बन गया। वहीं 15 अक्तूबर, 1961 को उनका देहान्त हुआ।

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