आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा-11
सन् 1943 में एक बड़ा अकाल पड़ा, जिसे ‘बंगाल का फैमिन’ बोलते हैं। शरीर जला देने वाली गरमी, जमीन पर बिखरे एक-एक दाने के लिए आपस में लड़ते लोग। किसी म्यूजियम में रखे नर कंकालों की तस्वीर प्रस्तुत करते भूख से बिलबिलाते बच्चे-बूढ़े- जवान। अस्थियाँ इस कदर उभरी हुईं कि जैसे कभी भी चमड़ी को भेदकर बाहर निकल जाएँ। सड़ाँध छोड़ती लाशें, लाशों को नोचते कुत्ते व गिद्ध !
यह विश्व के इतिहास में एक काला अध्याय था। इस विभीषिका में लगभग 40 लाख लोगों की अकाल मृत्यु हो गई थी। यह वह दौर था, जब बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश, बिहार व ओडिशा) की आबादी लगभग 6 करोड़ थी। अकाल ने बंगाल को सामूहिक कब्रिस्तान में परिवर्तित कर दिया था।
बंगाल की ऐसी दयनीय हालत में युनाइटेड किंगडम के तत्कालीन प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने ऐसा अमानवीय व्यंग्यात्मक उपहास उस समय किया था कि ‘भारत के लोग भूखे मर जाएंगे।’ इसके लिए दुनिया भर में चर्चिल की आलोचना भी हुई। हमारे लोगों ने उस भयावह मंजर को देखा और सहा है। समय लगा, हमारी मानवीय हानि तो हुई। पर हम उस स्थिति से धैर्यपूर्वक निकले।
सन् 1947 में हम स्वतंत्र भी हुए। स्वतंत्रता के बाद देश आगे बढ़ना शुरू हुआ। देश ने अपने अन्न उत्पादन को बढ़ाया। सन् 1950-51 में देश में गेहूँ का उत्पादन केवल 66 लाख टन था। 60 के दशक में 1 करोड़ टन गेहूँ का उत्पादन हुआ। और इतना ही हम बाहर से मँगाते थे। कई बार देश की बड़ी दयनीय स्थिति हो जाती थी। बहुत ही बुरे दौर से देश गुजरा है। लेकिन संकटों का सामना करते हुए देश आगे बढ़ा।
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