जन्म दिवस हर दिन पावन

पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर ब्रजबासी लाल “2 मई/जन्म-दिवस”


पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर ब्रजबासी लाल “2 मई/जन्म-दिवस”

श्रीराम मंदिर आंदोलन के समय जनांदोलन और भारतीय संसद के साथ ही एक मोरचा न्यायालय में भी खुला था, जहां यह बहस होती थी कि राम हुए भी हैं या नहीं; उनका जन्मस्थान क्या अयोध्या और अयोध्या में भी वही स्थान है, जिसके लिए आंदोलन हो रहा है। वहां पर पहले मंदिर था, इसका क्या प्रमाण है..? अंततः सब मोरचों पर सत्य की जीत हुई।

पुरातत्व के आधार पर न्यायालय में मंदिर के पक्ष में प्रमाण देने वाले एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे प्रोफेसर ब्रजबासी लाल। उनका जन्म दो मई, 1921 को झांसी में हुआ था। उन्होंने प्रयाग वि.वि. से संस्कृत में एम.ए. किया; पर पुरातत्व में रुचि के कारण प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता मोर्टिमर व्हीलर के निर्देशन में 1943 में तक्षशिला की उत्खनन से जुड़ गये। इसके बाद उन्होंने महाभारतकालीन कई स्थलों का उत्खनन किया। इनमें हस्तिनापुर (उ.प्र.), शिशुपालगढ़ (उड़ीसा), पुराण किला (दिल्ली) तथा कालीबंगन (राजस्थान) आदि प्रमुख थे।

प्रोफेसर लाल ने 1975 में ‘रामायण स्थलों का पुरातत्व’ परियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, भरद्वाज आश्रम, नंदीग्राम, चित्रकूट और शंृगवेरपुर में उत्खनन किया। उन्होंने बाबरी ढांचे के नीचे 12 भूमिगत स्तंभ आधारों का पता लगाया। यद्यपि तब तक मंदिर आंदोलन शुरू भी नहीं हुआ था; पर इस खोज से हिन्दू विरोधी सरकार के कान खड़े हो गये। अतः उनसे सभी तकनीकी सुविधाएं वापस लेकर परियोजना रोक दी गयी। इसके बावजूद उनकी इस प्रारंभिक रिपोर्ट को भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद ने 1989 में ‘रामायण और महाभारत की ऐतिहासिकता’ नामक खंड में प्रकाशित किया।

प्रोफेसर लाल ने इसके बाद इस विषय पर गहन अध्ययन और लेखन शुरू किया। उन्होंने बताया कि बाबरी ढांचे के नीचे मंदिर जैसे स्तंभ हैं तथा मस्जिद की नींव वस्तुतः मंदिर के मलबे पर ही रखी गयी है। ये स्तंभ मस्जिद संरचना सिद्धांत के बिल्कुल उलट थे, चूंकि इन पर हिन्दू देव-देवियों की आकृति तथा हिन्दू धार्मिक चिन्ह मौजूद थे। आगे चलकर उनके इन तथ्यों को न्यायालय ने मान्यता दी, जिससे राममंदिर के पक्ष में निर्णय हो सका।

प्रोफेसर ब्रजबासी लाल के तथ्यात्मक काम को मान्य करते हुए संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने उन्हें अपनी कई समितियों में शामिल किया। संस्कृत और भारतीय संस्कृति के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। अतः उन्होंने रामायण, महाभारत, सिन्धु घाटी की सभ्यता तथा सरस्वती से संबंधित स्थानों के उत्खनन पर विशेष काम किया। इससे विदेशी तथा उनके चाटुकार भारतीय इतिहासकारों द्वारा गढ़े गये भारत पर हुए आर्यों के आक्रमण जैसे झूठे सिद्धांत औंधे मुंह गिर गये।

प्रोफेसर लाल 1968 से 1972 तक ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’ के महानिदेशक तथा फिर ‘भारतीय उन्नत अध्ययन संस्थान, शिमला’ के निदेशक रहे। उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें लिखीं। 2002 में प्रकाशित ‘द सरस्वती फ्लो आॅन: द कंटिन्यूटी आॅफ इंडियन कल्चर’ तथा 2008 में प्रकाशित ‘राम, हिज हिस्टोरिसिटी, मंदिर एंड सेतु: एविडेंस आॅफ लिटरेचर, आर्कियोलोजी एंड अदर साइंसेज’ को वैश्विक स्तर पर ख्याति मिली। यद्यपि भारतीय बौद्धिक संस्थानों में बैठे वामपंथियों ने इन्हें महत्व नहीं दिया। उनके 150 से अधिक शोधपत्र राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।

भारतीय इतिहास के प्रति उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 2000 में ‘पद्म भूषण’ तथा 2021 में ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। भारतीय संस्कृति के इस महान साधक ने दिल्ली में 10 सितम्बर, 2021 को 101 वर्ष की परिपूर्ण आयु में अपनी जीवन यात्रा को विराम दिया। उनके नाम पर कानपुर के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में पुरातत्व से संबंधित एक पीठ की स्थापना की गयी है।

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