भारत की मूल संस्कृति सार्वभौमिकता और समावेशवाद पर आधारित है; परन्तु यह अपने ही सिद्धांतों और मूल्यों के बोझ तले दबकर रह जाती है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘सर्वभूत हिते रता’ जैसी उक्तियों ने समकालीन भारत के जन-मानस को जकड़ रखा है। नेता और बुद्धिजीवी बार-बार इन्हें दोहरा कर इस जकड़न को और बलवती करते हैं।
अब समय आ गया है, कि हम गहन आत्ममंथन करें और इन उक्तियों का सच्चा अर्थ गहराई में जाकर जानने का प्रयत्न करें। ऐसा अनुभव होता है कि ‘सबको स्वीकार करने और सबको साथ लेकर चलने की संस्कृति ने सामाजिक ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न कर दिया है।’
वामपंथियों, इस्लामिक कट्टरपंथियों, धर्मपरिवर्तन में लिप्त ईसाई मिशनरियों और इनके समर्थक समूह / संगठनों की यह विध्वसंक चौकड़ी ‘इन उक्तियों के पीछे ही तो छिपने का प्रयास करती है’, और अपना एजेण्डा व विमर्श (Agenda & Narrative) चलाती हैं।