उत्कृष्ट लेखक भैया जी सहस्रबुद्धे “14 मई/पुण्य-तिथि”
प्रभावी वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, कुशल संगठक, व्यवहार में विनम्रता व मिठास के धनी प्रभाकर गजानन सहस्रबुद्धे का जन्म खण्डवा (मध्य प्रदेश) में 18 सितम्बर, 1917 को हुआ था। उनके पिताजी वहाँ अधिवक्ता थे। वैसे यह परिवार मूलतः ग्राम टिटवी (जलगाँव, मध्य प्रदेश) का निवासी था।
भैया जी जब नौ वर्ष के ही थे, तब उनकी माताजी का देहान्त हो गया। इस कारण तीनों भाई-बहिनों का पालन बदल-बदलकर किसी सम्बन्धी के यहाँ होता रहा। मैट्रिक तक की शिक्षा इन्दौर में पूर्णकर वे अपनी बुआ के पास नागपुर आ गये और वहीं 1935 में संघ के स्वयंसेवक बने।
1940 में उन्होंने मराठी में एम.ए. और फिर वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ समय उन्होंने नागपुर के जोशी विद्यालय में अध्यापन भी किया। भैया जी का संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के घर आना-जाना होता रहता था। 1942 में बाबा साहब आप्टे की प्रेरणा से भैया जी प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में वे उत्तर प्रदेश के देवरिया, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि में जिला व विभाग प्रचारक और फिर ग्वालियर नगर व विभाग प्रचारक रहे।
1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो उन्हें लखनऊ केन्द्र बनाकर सहप्रान्त प्रचारक के नाते कार्य करने को कहा गया। उस समय भूमिगत रहकर भैया जी ने सभी गतिविधियों का स॰चालन किया। इन्हीं दिनों कांग्रेसी उपद्रवियों ने उनके घर मंे आग लगा दी। कुछ भले लोगों के सहयोग से उनके पिताजी जीवित बच गये, अन्यथा षड्यन्त्र तो उन्हें भी जलाकर मारने का था।
प्रतिबन्ध हटने पर 1950 में वे मध्यभारत प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1952 में घरेलू स्थिति अत्यन्त बिगड़ने पर श्री गुरुजी की अनुमति से वे घर लौट आये। उन्होंने अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर इन्दौर में वकालत प्रारम्भ की। 1954 तक इन्दौर में रहकर वे खामगाँव (बुलढाणा, महाराष्ट्र) के एक विद्यालय में प्राध्यापक हो गये।
इस दौरान उन्होंने सदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दायित्व लेकर काम किया। 1975 में देश में आपातकाल लगने पर वे नागपुर जेल में बन्द रहे। वहाँ से आकर उन्होंने नौकरी से अवकाश ले लिया और पूरा समय अध्ययन और लेखन में लगा दिया।
भैया जी से जब कोई उनसे सहस्रबुद्धे गोत्र की चर्चा करता, तो वे कहते कि हमारे पूर्वजों में कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति हुआ होगा; पर मैं तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति हूँ। 1981 में वे संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सर्वाधिकारी थे। वर्ग के पूरे 30 दिन वे दोनों समय संघस्थान पर सदा समय से पहले ही पहुँचते रहे। भैया जी अपने भाषण से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। तथ्य, तर्क और सही जगह पर सही उदाहरण देना उनकी विशेषता थी।
भैया जी एक सिद्धहस्त लेखक भी थे। संघ कार्य के साथ-साथ उन्होंने पर्याप्त लेखन भी किया। उन्होने बच्चों से लेकर वृद्धों तक के लिए मराठी में 125 पुस्तकों की रचना की। इनमें ‘जीवन मूल्य’ बहुत लोकप्रिय हुई। उनकी अनेक पुस्तकों का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। लखनऊ के लोकहित प्रकाशन ने उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। उन्होंने प्रख्यात इतिहासकार हरिभाऊ वाकणकर के साथ वैदिक सरस्वती नदी के शोध पर कार्य किया और फिर एक पुस्तक भी लिखी।
माँ सरस्वती के इस विनम्र साधक का देहान्त यवतमाल (वर्धा, महाराष्ट्र) में 14 मई, 2007 को 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में हुआ।
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