फक्कड़ एवं मस्त गोपीचंद अरोड़ा “31जनवरी/देहावसान”
राजस्थान में अपना प्रचारक जीवन बिताने वाले श्री गोपीचंद अरोड़ा का जन्म 1923 में अविभाजित पंजाब में हुआ था। वे स्वयंसेवक भी वहीं बने। विभाजन के दौर की कठिनाइयों के कारण उनकी लौकिक शिक्षा बहुत अधिक नहीं हो सकी। भारत में आकर जब परिवार कुछ स्थिर हो गया, तो वे प्रचारक बन गये। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर प्रचारकों को वापस जाने को कह दिया गया था। गोपीचंद जी ने अपने बड़े भाई के पास अलवर में रहते हुए एक नौकरी कर ली; पर प्रतिबंध समाप्त होते ही वे फिर प्रचारक बन गये।
प्रचारक जीवन में वे चित्तौड़, बाड़मेर, श्री गंगानगर, अलवर, सिरोही, झुंझनू आदि में विभिन्न दायित्वों पर रहे। 1978 में वे पाली के सह विभाग प्रचारक तथा 1979 में विभाग प्रचारक बने। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनका फक्कड़ तथा मस्त स्वभाव था। विभिन्न शिविरों तथा संघ शिक्षा वर्ग आदि में रात में होने वाली विनोद सभा में उनका यह कौशल पूरी तरह प्रकट होता था; पर वे हंसी मजाक करते हुए श्रोताओं को सही दिशा भी दे देते थे।
वे मानते थे कि तत्वज्ञान की बजाय मित्रता से लोगों को जोड़ना आसान है। वे झुंझनू जिले में बिड़ला परिवार द्वारा संचालित तकनीकी विद्यालय (बिट्स) के छात्रों से लेकर विभिन्न जाति-बिरादरियों के मुखियाओं तक गहरे संबंध बनाकर रखते थे। उन्हें खाना बनाने तथा दूसरों को खिलाने का भी शौक था।
साहसी और जुझारू स्वभाव वाले गोपीचंद का शरीर नाटा और भारी होने पर भी बहुत गठीला और फुर्तीला था। दंडयुद्ध तथा वेत्रचर्म उनके प्रिय विषय थे। एक के विरुद्ध अनेक के संघर्ष में उनका दंड संचालन देखते ही बनता था। इसके साथ ही उनकी घोष विभाग में भी बहुत रुचि थी। राजस्थान में घोष को स्थापित करने का श्रेय उन्हें ही है। सुकंठ गायक होने के कारण पंजाबी और राजस्थानी गीत वे बहुत झूमकर गाते थे। 1975 के प्रतिबंध के समय बाहर ही रहते हुए उन्होंने सत्याग्रह तथा जन जागरण की गतिविधियों का संचालन किया।।
गोपीचंद जी एक कुशल प्रबंधक भी थे। उनकी हर योजना परिपूर्ण होती थी। झुंझनु के संघ शिक्षा वर्ग में रात में आये भीषण अंधड़ के कारण पंडाल ध्वस्त हो गया; पर सुबह जब लोग उठे, तो वह पंडाल फिर से सिर उठाकर खड़ा था। ऐसा ही एक बार किशनगढ़ में भी हुआ।
राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर में वे कई वर्ष प्रचारक रहे। 1965 में चोहटन स्टेशन के पास स्थित पैट्रोल पम्प में पाकिस्तानी विमानों के हमले से आग लग गयी। उस समय स्टेशन पर शस्त्रों से लदी गाड़ी भी खड़ी थी। ऐसे में गोपीचंद जी ने सैनिकों के साथ मिलकर आग को काबू किया तथा नागरिकों की प्राणरक्षा की। उनकी जागरूकता से कई घुसपैठिये भी पकड़े गये।
युद्ध के समय घायल सैनिकों को खून की आवश्यकता होने पर उनके नेतृत्व में स्वयंसेवक तथा नागरिक सैनिक अस्पताल में उमड़ पड़ते थे। उन दिनों युद्ध सामग्री ले जाने वाली रेलगाडि़यां शत्रुओं के निशाने पर रहती थीं। एक बार ऐसे एक चालक ने भयवश गाड़ी ले जाने से मना कर दिया। पता लगने पर गोपीचंद जी ने तुरंत एक पुराने चालक को तैयार कर लिया। यद्यपि बमवर्षा होने से वह चालक मारा गया; पर तब तक शस्त्र सीमा पर पहुंच गये थे।
31 जनवरी 1981 में सिरोही में संघ के सह सरकार्यवाह श्री यादवराव जोशी का प्रवास था। दिन भर वे उसके लिए भागदौड़ करते रहे। शाम को सार्वजनिक कार्यक्रम और फिर कार्यकर्ता बैठक के बाद रात में उन्हें हृदयाघात हुआ। यह इतना भीषण था कि चिकित्सकीय सहायता के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। इस प्रकार संघ कार्य करते हुए ही उनकी जीवन यात्रा पूरी हुई।