चित्र मढ़ते हुए प्रचारक बने मथुरादत्त पांडेय”2सितंबर /पुण्य-तिथि

चित्र मढ़ते हुए प्रचारक बने मथुरादत्त पांडेय “2 सितम्बर/पुण्य-तिथि'”

श्री मथुरादत्त पांडेय का जन्म ग्राम विजयपुर पाटिया (अल्मोड़ा, उत्तराखंड)  में श्री धर्मानन्द पांडेय के घर में हुआ था। मथुरादत्त जी छह भाई-बहिन थे। प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा में लेने के बाद इन्होंने बरेली से आई.टी.आई का एक वर्षीय प्रशिक्षण लिया। इसके बाद वे अपने मामा जी के पास लखनऊ आ गये। आगे चलकर इन्होंने अमीनाबाद में श्रीराम रोड पर चित्र मढ़ने का कार्य प्रारम्भ किया। थोड़े समय में ही इनकी दुकान प्रसिद्ध हो गयी।

मथुरादत्त जी उन दिनों कांग्रेस में खूब सक्रिय थे। यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू भी एक-दो बार उनकी दुकान पर आये थे। नेहरू जी की खाती स्टेट (अल्मोड़ा) में कुछ सम्पत्ति थी। उसे देखने के लिए वे मथुरादत्त जी को ही भेजते थे; पर 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की विफलता, गांधी जी और नेहरू जी के मुस्लिम तुष्टीकरण आदि से मथुरादत्त जी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने उन्हें सदा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ दिया।

1945-46 में लखनऊ में कार्यकर्ताओं ने एक अभियान लिया कि सब स्वयंसेवकों के घर पर पूज्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी के चित्र होने चाहिए। चित्र तो कार्यालय से मिल जाते थे, पर उन्हें मढ़वाने के लिए बाजार जाना पड़ता था। कई स्वयंसेवकों ने मथुरादत्त जी की दुकान पर वे चित्र मढ़ने के लिए दिये। इससे मथुरादत्त जी के मन में इन दोनों महापुरुषों के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने कुछ स्वयंसेवकों से यह पूछा। इस प्रकार उनका संघ से सम्पर्क हुआ। 

फिर तो वे संघ में इतने रम गये कि दिन-रात संघ और शाखा के अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता ही नहीं था। यहां तक कि उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय ले लिया। उनकी दुकान बहुत अच्छी चलती थी। घर-परिवार के लोगों और मित्रों ने बहुत समझाया; पर उन्होंने वह दुकान बिना मूल्य लिए एक स्वयंसेवक को दे दी और 1947 में प्रचारक बन कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। इसके बाद वे अनेक स्थानों पर नगर, तहसील, जिला और विभाग प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे लखनऊ जेल में रहे। भाऊराव देवरस और श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। 

वे बहुत परिश्रमी, स्वभाव के कठोर और व्यवस्थाप्रिय थे। वे अपना छोटा बिस्तर सदा साथ रखते थे। शाखा में सदा समय से, निकर पहनकर और दंड लेकर ही जाते थे। दिन भर में 10-15 कि.मी पैदल चलना उनके लिए सामान्य बात थी। उनके भाषण युवा स्वयंसेवकों के दिल में आग भर देते थे।

मथुरादत्त जी के मन में अपनी जन्मभूमि उत्तराखंड के प्रति बहुत अनुराग था। ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी’ वहां नहीं रह पाती, वे इस मानसिकता को बदलना चाहते थे। उनका मत था कि शिक्षा के प्रसार से इस स्थिति को सुधारा जा सकता है। इसलिए 1960 में उन्होंने अपने हिस्से में आयी पैतृक सम्पत्ति ‘विद्या भारती’ को दान कर दी। आज वहां पर एक बड़ा कृषि विद्यालय चलता है, जो उत्तरांचल का पहला कृषि विद्यालय है।

आगे चलकर जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो वे फिर से तहसील प्रचारक का दायित्व लेकर मेरठ की बागपत तहसील में काम करने लगे। कुछ वर्ष बाद जब आयु की अधिकता के कारण स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं ने उन्हें घेर लिया, तो उन्हें सरस्वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ में बुला लिया गया। लम्बी बीमारी के बाद लखनऊ के चिकित्सा महाविद्यालय में दो सितम्बर, 1981 को उनका देहावसान हुआ। उनके गांव विजयपुर पाटिया में बना कृषि विद्यालय उनकी स्मृति को आज भी जीवंत बनाये है।

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