सदियों तक चली घुसपैठी आक्रमणकारियों के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध की गाथा-18
निडर मणिपुरी सेनापति जिन्होंने सन् 1891 में अंग्रेजों के विरुद्ध घमासान युद्ध लड़ा…
कुछ युद्ध क्षेत्र में अंग्रेजों की विजय के पश्चात कुटिल अंग्रेजों ने मणिपुर को स्वतंत्र तो रहने दिया, परंतु उसकी सुरक्षा के नाम पर महत्वपूर्ण अधिकार अपने पास रख लिए।
बाद में मणिपुर राज परिवार में मची अन्तर्कलह का लाभ उठाते हुए धूर्त अंग्रेजों ने मित्रता के नाते सहयोग करने के बहाने मणिपुर के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया। और शनै शनै मणिपुर के हर क्षेत्र में अपने राजनैतिक एजेंट तैनात कर दिए।
विवेकशील मणिपुरी लोगों ने इसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जिसके चलते ‘एंग्लो-मणिपुरी युद्ध’ सन् 1891 में लड़ा गया। यह युद्ध 31 मार्च, 1891 से प्रारंभ होकर 27अप्रैल, 1891 तक चला।
मणिपुर के महाराजा चंद्रकीर्ति की मृत्यु सन् 1886 में हो गई थी। उनकी मृत्यु के बाद महाराजा सुरचंद्र राजा बने। यद्यपि तत्समय गद्दी के कुल मिलाकर आठ दावेदार थे।
सुरचंद्र एक कमजोर राजा प्रमाणित हुए। राज संभालने की उनकी अकुशलता और अक्षमता की वजह से मणिपुर में राजनीतिक उथल-पुथल हो गई, और राजगद्दी के दावेदार अलग- अलग समूहों में बँटकर राजा सुरचंद्र के विरुद्ध षडयंत्र करने लगे। सभी को अपने लिए राजगद्दी चाहिए थी।
राजकुमार कुलचंद्र और उनके छोटे भाईयों ने सेनापति तिकेंद्रजीत के साथ मिलकर 21 सितंबर, 1890 को महाराज सुरचंद्र के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
महाराजा सुरचंद्र ने मजबूर होकर भारत के वायसराय लॉर्ड लैंसडाउन से अपने भाइयों और सेनापति की शिकायत की।