जबलपुर की रामलीला : प्रशांत पोळ
मंच पर दशरथ विलाप का दृश्य चल रहा हैं. प्रभु श्रीराम के वियोग में दशरथ अपने आप को कोस रहे हैं. लंबे, चौड़े संवाद हैं, सामान्य परिस्थिति में कुछ उबाऊ से लगने वाले. लेकिन मंच के दोनों ओर, हजारों दर्शक, एकचित्त / एकाग्र होकर इस दृश्य को देख रहे हैं. संवादों के बीच – बीच में कथावाचक, व्यास सूत्रधार, रामायण की चौपाईयां गा रहे हैं और हजारों दर्शक, कथावाचकों के साथ उन चौपाइयों को बोल रहे हैं…!
आज भी नवरात्रि के समय, सॅटॅलाइट टी व्ही और ओटीटी की असंख्य चैनलों के बीच, गतिशील जीवनशैली में, जबलपुर जैसे महानगर में, छोटा फवारा के पास, गोविंदगंज रामलीला में यह दृश्य देखने मिल जाता हैं. यह इस बात का प्रमाण हैं की रामलीला अपने जबलपुर के रग रग में बसी हैं. यह हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं. हमारे संस्कारों की महक हैं.
इस लीला के पात्र निश्चित हैं. उनके संवाद निश्चित हैं. लीला का कथानक भी निश्चित हैं. सभी दर्शकों को यह कथानक न केवल मालूम हैं, बल्कि यह रटा हैं. इसमें कोई उत्कंठा या रहस्य छिपा नहीं हैं. अनेक दर्शकों को बीच – बीच में बोली जाने वाली तुलसी रामायण की चौपाइयां भी कंठस्थ हैं. किन्तु फिर भी रामलीला का जबरदस्त आकर्षण हैं. इस मिट्टी से कटे हुए बुध्दिजीवियों के लिए, इसका कारण समझ के परे हैं !
रामलीला की यह परंपरा कहाँ से निर्माण हुई, इसके बारे में निश्चित जानकारी नहीं मिलती. किन्तु फिर भी इतिहासविदोंका यह मानना हैं की संत तुलसीदास जी के रहते, काशी नरेश के आश्रय में रामलीला का पहली बार मंचन हुआ. सन १६१८ – १९ के लगभग गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस को पूर्ण किया और सन १६२१ में सर्वप्रथम, काशी के अस्सी घाट पर संत तुलसीदास और काशी नरेश की उपस्थिति में रामलीला का मंचन हुआ. इसे यदि हम प्रमाण मानते हैं (और जिसे मानने के लिए हमारे पास अनेक तथ्य उपलब्ध हैं), तो रामलीला को चार सौ वर्ष पूर्ण हो गए हैं.
संत तुलसीदास जी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर की रामलीला को विश्वप्रसिध्द बना दिया. इस रामलीला में जो मुकुट, धनुष-बाण, खडाऊं और कमंडल का प्रयोग होता हैं, वें प्रभु रामचन्द्रजी द्वारा प्रयोग किये गए हैं, ऐसा माना जाता हैं. ये सारे दिव्य उपस्कर, काशी नरेश के संरक्षण में, प्राचीन बृहस्पती मंदिर में सुरक्षित हैं. वर्ष में एक बार केवल भरत मिलाप के दिन, रामनगर की इस रामलीला में ये उपस्कर निकाले जाते हैं, जिन्हें देखने हजारों की संख्या में दर्शक पहुचते हैं.
जबलपुर में नवरात्रि की कल्पना बगैर रामलीला के हो ही नहीं सकती. एक सौ उनसठ वर्ष हो गये जबलपुर में रामलीला प्रारंभ हो कर. सन १८६५ में गोविन्दगंज रामलीला की शुरुआत रज्जू गुरु के नेतृत्व में हुई थी. तब छोटा फुआरा भी नहीं बना था. बिजली होने का तो प्रश्न ही नहीं था. लालटेन के प्रकाश में रामलीला होती थी. और तब भी हजारो की संख्या में लोग, (बिना माइक और स्पीकर के) भक्तिभाव से इसे देखते / सुनते थे. ६७ वर्ष बाद, सन १९३२ में बिजली आने पर पहली बार लाईट और माइक के साथ रामलीला हुई, तो उसे देखने, केवल जबलपुर ही नहीं, तो आजू-बाजू के गाँवों से हजारों की संख्या में दर्शक आये थे.
दिन बदलते रहे.. नर्मदा मैय्या में पानी बहता रहा.. लेकिन गोविन्दगंज रामलीला का वही धार्मिक और सात्विक स्वरुप कायम रहा. युध्द के पाँच वर्षों को छोड़ कर रामलीला का मंचन अविरत होता रहा. अनेक पीढ़ियों ने रामलीला में हिस्सा लिया, अनेक किरदारों को जिवंत किया.
दूरदर्शन और मोबाइल की क्रांति होने तक लोगों के मनोरंजन के साधन अत्यंत सिमित थे. अतः रामलीला को देखने के लिए दर्शकों की भीड़ स्वाभाविक रूप से टूट पड़ती थी. किन्तु नब्बे के दशक में सूचना क्रान्ति का आगाज हुआ. अनेक टी वी चैनल्स दिन-रात कार्यक्रम परोसने लगे. मनोरंजन के अनेक साधन, विकल्प के रूप में सामने आए. यह दौर अधिकतर रामलीला समितियों के लिए कठीन था. दर्शकों की संख्या घट रही थी. आर्थिक सहयोग भी कम हो रहा था.
ऐसे समय में रामलीला समितियों ने अनेक प्रयोग किये. नए तकनिकी का इस्तेमाल किया. समय के साथ प्रस्तुति में कुछ आधुनिकता लाने का प्रयास हुआ, किन्तु रामलीला मंचन की आत्मा वही रही, बस कलेवर थोडा बदलने का प्रयास किया. जैसे – गोविन्दगंज रामलीला ने शहर के बीच में स्थित हनुमानताल में ‘लंका दहन’ का दृश्य मंचीत करना प्रारंभ किया. इसका अत्यंत सकारात्मक परिणाम हुआ. हजारों की संख्या में दर्शक पुनः रामलीला की ओर लौटने लगे.
यहां हर पात्र को रामायण की चौपाईयां कंठस्थ होती हैं. कथा व्यास, रामलीला की गतिमानता को बनाये रखते हैं. कुल मिला कर उन्नीस दिन का यह खेला उसी भक्तिभाव से, बनारसी शैली में आज भी खेला जाता हैं.
जबलपुर में अनेक स्थानों पर रामलीला खेली जाती हैं. गोविंदगंज रामलीला के साथ ही गढ़ा की रामलीला, घमापुर में रामकृष्ण मठ के पास खेली जाने वाली रामलीला, सदर की ऐतिहासिक रामलीला, रांझी की रामलीला….. जबलपुर की अपनी संस्कृति हैं, इन लीलाओं को खेलने की.
कुछ वर्ष पहले गोविंदगंज की रामलीला को देखने पहुंचा था. उनका वह १५१ वा वर्ष था. भारी तादाद में दर्शक, रामलीला के मंचन को दत्तचित होकर देख रहे थे. राम के वनवास गमन का प्रसंग था. दशरथ विलाप कर रहे थे. लंबे चौड़े संवाद थे. कितु सारे दर्शक एकाग्र होकर उसका आनंद ले रहे थे. सबको रामायण मालूम थी. अनेकों को उसकी चौपाईयां कंठस्थ थी. फिर भी, वर्तमान गतिशील जीवनशैली में भी, वे सारे दर्शक, बड़ी संख्या में उस रामलीला का आनंद ले रहे थे. ७१ वर्षीय लखनलाल उपाध्याय दशरथ का किरदार निभा रहे थे, जो पहले १० बार राम की भूमिका में मंचन कर चुके हैं.
रामलीला देखने का यह अनुभव इतना सुंदर था.. इतना सात्विक था.. इतना मन प्रसन्न करने वाला था.. की ऐसा लग रहा था, यहां की जड़ों के साथ मेरे संबंध और भी मजबूत हो रहे हैं..!!

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