राणा पूंजा जयंती (5- अक्टूबर)

राणा पूंजा जयंती ( 5-अक्टूबर)

संस्कृति के मूल तत्वों को जीवन में उतार कर राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिये खड़े रहने वाले राणा पूंजा, आत्मविश्वास और स्वाभिमान के धनी, जनजातियों के नायक राणा पूंजा ने वीर शिरोमणि महाराणा के मित्र, संकटमोचन एवं आत्मिक सहयोगी रहते हुए ऐतिहासिक गौरव प्राप्त किया।

राणा पूंजा का जन्म अरावली पर्वतमालाओं से घिरा क्षेत्र जिसे “भोमट” के नाम से जाना जाता है, वहाँ पर हुआ ।

महाराणा प्रताप ने 1572 में शासन सम्भाला। दिल्ली के बादशाह अकबर ने मेवाड़ को संधि व वार्ता के माध्यम से अपना आधिपत्य स्वीकार करवाने का प्रयास किया परंतु प्रताप की राजनीतिक कूटनीति की वजह से यह सम्भव नही हो पाया। प्रताप जानते थे कि संधि न करने पर संघर्ष अवश्य करना पड़ेगा। अतः प्रताप ने पराधीनता के बजाय संघर्ष का मार्ग चुना। संघर्ष की आहट को भांपते हुए, सभी ठिकानेदारों को कुम्भलगढ़ बुला लिया। राणा पूंजा भी अपनी धनुर्धर भीलों की सेना के  साथ कुंभलगढ़ पहुंच गये ।

युद्ध की व्युह रचना बनी और उसके अनुसार भीलों की सेना को राणा पूंजा के नेतृत्व में पहाड़ियों से आक्रमण करने को कहा गया। 1576 में हुए हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप का प्रहार इतना तेज था कि मुगल सेना के पैर उख़ड गये। इस युद्ध में सबसे बड़ा सैनिकों का दल भीलों का ही था। सेना के साथ स्थानीय एवँ रण कुशल भीलों ने भी शत्रुओं को छकाने में कोई कसर नही छोड़ी। इस आक्रमण से मुगल सेना सम्भल नही पाई और भाग खड़ी हुई । अकबर के स्वयं रण में आने की अफ़वाह फ़ैलाये जाने पर मुगल सेना लौटने लगी और  रक्त तलाई में युद्ध आरम्भ हुआ।

युद्ध के दुसरे दिन मुगल सेना गोगुंदा पहुंची और गोगुंदा को सुनसान पाकर उन्हें आश्चर्य हुआ। गोगुंदा मे मुगलों की सेना को राणा पूंजा के नेतृत्व मे सेना ने घेर लिया, चारो और मिट्टी की दीवारे बनवा दी और ख़ाई ख़ोद दी गयी । गोगुंदा मे मुगल सेना कैदियों की भांति रह गई। हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात भी मुगल सेना ने कई आक्रमण किये परंतु अपने मकसद में सफ़ल नही हो सके।

इस युद्ध में छापामार युद्ध प्रणाली  और सुचना तंत्र के सुत्रधार ये भील सैनिक ही रहे। मेवाड़ की रक्षा में राणा पूंजा का योगदान अविस्मणीय है। राणा पूंजा का मेवाड़ की आन बान शान की रक्षा में कितना महत्व था। इसका अंदाज आप मेवाड़ के राज चिन्ह को देख कर ही लगा सकते है ।

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