सबके राम-9 “सत्यसंध पालक श्रुति सेतु”
भारतीय संस्कृति में ‘राम’ भारतीय मनीषा की आत्मा हैं। अध्यात्म, चिंतन, भक्ति, शक्ति, ज्ञान और पुरुषार्थ के प्राण हैं राम। राम राजा हैं, लेकिन लोकतंत्र के संरक्षक हैं। राम शक्तिपुंज हैं, लेकिन दुर्बलों के रक्षा कवच हैं। राम राजकुमार हैं, लेकिन तपस्वी के भेष में वन-वन भटकते हैं। राम उच्च कुल के हैं, आभिजात्य हैं। लेकिन सबको गले लगाते हैं। राम राजा होते हुए भी साम्राज्यवादी नहीं हैं। राम क्षेत्रवादी नहीं हैं। राम विस्तारवादी नहीं हैं। राम सामंतवादी नहीं हैं। राम जातिवादी नहीं हैं। राम अहंकारी नहीं हैं। तो फिर राम क्या हैं?
राम न्यायप्रिय हैं। राम भावप्रिय हैं। राम सत्यप्रिय हैं। राम अनुशासनप्रिय हैं। राम सम्यक् दृष्टि वाले हैं। राम लौकिक भी हैं। राम अलौकिक भी हैं। राम ईश्वर भी हैं। राम मनुष्य भी हैं। राम भौतिक भी हैं। राम दैविक भी हैं। राम आदि भी हैं। राम अंत भी हैं। मानो तो राम सबकुछ हैं और न मानो तो कुछ भी नहीं।
सत्ता और समाज के बीच संतुलन के राम एक उदाहरण हैं। इसीलिए राजधर्म की सबसे आदर्श अवस्था ‘रामराज्य’ मानी गई है। राम ‘कर्मयोगी’ हैं। गीता का युग राम के बाद का है। अगर गीता न होती तो राम की जीवनगाथा ही गीता के कर्मयोग की सुंदर गाथा बनती। अनासक्त भाव से कार्यरत राम दरअसल गीता का पूर्वपाठ हैं।
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