श्रुतम्

आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा-21

आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा-21

हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का मर्यादित इस प्रकार उपभोग करें ताकि वे नष्ट भी न हों, और विकृत भी न हों। प्रकृति का संरक्षण करते हुए हमें आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ना है। वायु, जल और भूमि का प्रदूषण, आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरा और अभिशाप हो सकता है। वनस्पति, पशु-पक्षी, जानवरों का संरक्षण करते हुए हमें आगे बढ़ना है।
आत्मनिर्भरता का जब हम चिंतन करते हैं, तो प्रकृति और संपूर्ण चराचर जीव-जगत् को सँभालकर चलना है। समेकित विकास के लिए आवश्यक मर्यादाओं और अपेक्षित अनुशासन में बंधना ही पड़ता है। यह सारा चिंतन एकात्म मानवदर्शन की संकल्पना है।

आत्मनिर्भरता का अर्थ केवल उत्पादन ही नहीं है। उत्पादन के साथ-साथ हमें अपने जीवन मूल्यों का संरक्षण करते हुए आगे बढ़ना है। ये पृथ्वी सबके लिए है। जीव मात्र का कल्याण हमारा दर्शन है।

नई तकनीकी के साथ कारखानों में उत्पादन बढ़ेगा, तो लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हो जाएँगे, विकास की अवधारणा और आत्मनिर्भरता की अवधारणा में इसको भी ध्यान में रखना है। लोग बेरोजगार हो गए, तो करेंगे क्या ? बेरोज़गारी के साथ संस्कारों की न्यूनता होती है, तो जीवन मुल्यों का क्षरण होता है। व्यक्ति में भटकाव से अपराधिक प्रवृत्ति भी विकसित हो सकती है।

नई तकनीकी से कपड़े का उत्पादन बहुत बढ़ गया। परिणामस्वरूप छोटे हैंडलूम वाले 5 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए, इस तरह का विकास ढाँचा हमें नहीं चाहिए। हमें वह ढाँचा चाहिए, जिसमें सब लोगों के लिए संतुलित व्यवस्था हो।

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