आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा- 25
हमारी आत्मनिर्भरता ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के बिना संभव ही नहीं है। सर्वे भवन्तु सुखिनः और आत्मनिर्भरता, यह समानांतर है। हम जितने अपने हैं, उतने ही वैश्विक हैं। विश्व के मंगल की कामना किए बिना अपने मंगल की कामना करना संभव ही नहीं है। “सभी संतुष्ट हों, उसी में मेरा सुख है”- यही भावना आत्मीयता की, एकात्मबोध की भावना है। और यही भावना वसुधैव कुटुंबकम् की भावना है।
आत्मनिर्भरता का अर्थ आत्मा का विस्तार करना भी है। जब तक हम आत्म के विस्तार की ओर नहीं जाते, तो भारतीय परिप्रेक्ष्य में आत्मनिर्भरता संभव नहीं है। वसुधैव कुटुंबकम् की हमारी जो अवधारणा है, यह सनातन है शाश्वत है। अपनी- अपनी आर्थिक उन्नति करना भारत के किसी भी विद्वान् को, उद्योगपति को या सम्राट् को अभीष्ट नहीं था। अपितु उसमें समग्र का व्यापक हित निहित होता था।
आचार्य चाणक्य ने जब अर्थशास्त्र लिखा, तब वे मगध के महामंत्री थे। उन्होंने केवल मगध की आर्थिक उन्नति के लिए अर्थशास्त्र नहीं लिखा, अपितु सम्पूर्ण भारत व विश्व की आर्थिक उन्नति के लिए लिखा।
आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र के पहले ही श्लोक में लिखा–
‘पृथिव्याः लाभपालनोपायः
शास्त्रमअर्थ-शास्त्रमिति।’
अर्थात् – जिस शास्त्र से संपूर्ण पृथ्वी की लाभ से पालना होती है, संपूर्ण पृथ्वी का पालन होता है, पृथ्वी के संपूर्ण जीवों- वनस्पति का संरक्षण होता है, सबका हित संवर्धन होता है, वह शास्त्र ही अर्थशास्त्र है।