आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा- 29
आत्मनिर्भर भारत का अर्थ केवल भारत नहीं है, संपूर्ण सृष्टि, संपूर्ण जीव-जगत्, संपूर्ण प्रकृति है। अपने लिए न्यूनतम रखकर और दूसरों के लिए देते रहने में ही उन्नयन है, अपनी उन्नति है। यही भारत की उन्नति का एक सुंदर मार्ग है। जब हम कहते हैं कि भारत स्वावलंबी बने, तो केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं अपितु आध्यात्मिक, वैचारिक, सांस्कृतिक दृष्टि से भी बने। दुनियां को जो हमें सर्वाधिक देना है, उस दृष्टि से स्वावलंबी बने।
अमेरिका का मॉडल भारत में खड़ा करना सरल काम है। हमारे युवा कर देंगे। पर इसमें भारत कहाँ होगा ? यह ध्यान में रखने की बात है। भारत का जो आत्मोन्नति का मार्ग है, हमारा जो स्वावलंबन है, हमारी आत्मनिर्भरता है, इसका आत्मतत्त्व है। महात्मा गांधी जी, महर्षि अरविंद ने वही याद दिलाया। गुरुदेव श्री रविंद्र नाथ टैगोर ने भी अपनी कविता में वही लिखा है।
ये भारत का सनातन दर्शन, सनातन विचार है। हमारा स्वावलंबन, हमारी आत्मनिर्भरता समग्रता में है। आर्थिक पक्ष भी होना ही चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति साक्षर हो, प्रत्येक व्यक्ति को भोजन, कपड़ा, मकान मिले, प्रत्येक व्यक्ति को क्षमता के अनुसार मिले, क्षमता के अनुसार वह आगे बढ़े। साथ ही विश्व को दिशा देने वाला भी बने। यह भारत का दैवीय दायित्व है। हमारे कंधों पर दैवीय दायित्व है। दुनियां के समस्त विचारक, दार्शनिक यही कहते हैं। आज दुनियां के विद्वान् भारत के इस दैवीय दायित्व की ओर ही आशा से देख रहे हैं। इसे निभाने की जिम्मेदारी हमारी है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन भावों और संस्कारों को देते हुए हम आगे बढ़ें।
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