सेवापथ की सहभागी : भागीरथी जैन “22 जून/पुण्य-तिथि”
भारत में लम्बे समय तक नारी समाज रूढ़ियों, अन्धविश्वास और अशिक्षा से ग्रस्त रहा। ऐसे वातावरण में सरदारशहर, राजस्थान के एक सम्पन्न घर में भागीरथी जैन का जन्म हुआ। 10 वर्ष की अवस्था में उसका विवाह 20 वर्षीय मोहन जैन से हो गया। उनके पति मोहन जी की रुचि व्यापार से अधिक समाजसेवा और स्वातन्×य आन्दोलन में थी। अतः उन्होंने सर्वप्रथम अपनी पत्नी भागीरथी को ही पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
उन दिनों सरदारशहर में आन्दोलन की गतिविधियों का केन्द्र मोहनभाई का घर ही था। बीकानेर नरेश गंगासिंह जी इसके विरोधी थे। इसके बावजूद मोहन भाई ने अपने कदम पीछे नहीं हटाये। यद्यपि भागीरथी के पिता राजघराने के साथ थे; पर उन्होंने सदा अपने पति का साथ दिया। गान्धी जी से प्रेरित होकर भागीरथी ने आजीवन खादी पहनने का व्रत निभाया।
उनके मायके और ससुराल दोनों अत्यन्त समृद्ध थे। उनके पास भी एक से एक अच्छे कपड़े और कीमती गहने थे। घरेलू आयोजनों में अन्य महिलाओं को इनसे लदा देखकर उनका मन विचलित होता; पर अपने व्रत का स्मरण कर वे शान्त हो जातीं।
मोहन भाई ने निर्धन वर्ग के बच्चों की शिक्षा के लिए अनेक विद्यालय स्थापित किये। कई बार अध्यापकों को देने के लिए वेतन भी नहीं होता था। ऐसे में भागीरथी अपने आभूषण ही उनको दे देतीं। एक समय तो उनके हाथ में एक सोने की चूड़ी ही शेष रह गयी। उन दिनों सम्पत्ति दान आन्दोलन चल रहा था। गोकुलभाई भट्ट ने सरदारशहर की भरी सभा में जब इसका आग्रह किया, तो सब ओर सन्नाटा छा गया। यह देखकर भागीरथी ने वह अन्तिम चूड़ी भी अपने हाथ से निकालकर गोकुलभाई की झोली में डाल दी।
सरदारशहर में गान्धी विद्या मन्दिर की स्थापना के समय वे अपने पति के साथ कई वर्ष शहर से दूर एक झोपड़ी में रहीं। वे छुआछूत और पर्दा प्रथा की बहुत विरोधी थीं। उनके घर के द्वार सभी के लिए खुले थे। जैन समाज में विवाह के समय होने वाले आडम्बर के विरोधी मोहन भाई ने अपने सभी आठ बच्चों का विवाह दहेज, भोज, बारात और बाजे-गाजे जैसे दिखावों के बिना किया।
मोहन भाई एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार के थे; पर वे समाजसेवा में ही व्यस्त रहते थे। ऐसे में भागीरथी ने अध्यापन के साथ ही सिलाई केन्द्र,पापड़ उद्योग, दवा विक्रय केन्द्र आदि चलाकर परिवार का स्वाभिमान बनाये रखा। बच्चों ने भी इसमें उनका पूरा साथ दिया।
आचार्य तुलसी के प्रति पति-पत्नी दोनों के मन में असीम श्रद्धा थी। दिल्ली के विशाल अणुव्रत सम्मेलन में आचार्य जी के आदेश पर भागीरथी जैन ने सभा को संबोधित कर सबको सम्मोहित कर दिया। 1982 में मोहन भाई ने उदयपुर से 65 कि.मी दूर राजसमन्द की वीरान पहाड़ी पर ‘अणुव्रत विश्वभारती’ का शुभारम्भ किया, तो वे पति के साथ वहीं रहने लगीं। वहाँ चारों ओर साँप, बिच्छुओं के साथ असामाजिक तत्वों का भी साम्राज्य था। मोहन भाई इस प्रकल्प के संचालन के लिए प्रायः बाहर ही रहते थे। ऐसे में सारी व्यवस्थाएँ भागीरथी जैन ने ही सँभाली।
इस महान् समाजसेवी नारी का 22 जून, 1997 को अणुविभा परिसर में ही शरीरान्त हुआ। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि नारी यदि चाहे, तो वह न केवल पति के सांसारिक अपितु सामाजिक जीवन में भी बराबर की सहभागी बन सकती है। उनके देहान्त के बाद उनके परिवारजन ‘भागीरथी सेवा न्यास’ के माध्यम से अनेक सेवाकार्य चला रहे हैं।