शरतचंद्र चट्टोपाध्याय “16 जनवरी/पुण्यतिथि”
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, एक ऐसे व्यक्ति है, जिन्होंने अपने शब्दों और कुछ अविस्मरणीय लेखन के कारण लोगों पर एक गहरी छाप छोड़ी, वह पश्चिम बंगाल को भली भाँति समझते थे। एक विख्यात लेखक, जिनकी स्पष्ट और अविस्मरणीय लेखन की सरल शैली उस समय के नियमित पाठकों को पढ़ने के लिए एक बेहतरीन समाग्री थी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने ग्रामीण बंगाल को एक नया आयाम दिया, जो एक सादगी के रूप वहाँ अभी भी प्रचलित है।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितंबर 1876 को हुगली जिले के देवानंदपुर गाँव में हुआ था। उन्होंने अपना बचपन भागलपुर में अपने मामा के घर में बिताया। 1894 में, उन्होंने टीएन जुबली कॉलेजिएट स्कूल से प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें एफए क्लास में भर्ती कराया गया, लेकिन गरीबी के कारण अपनी आगे की शिक्षा जारी रखने में असमर्थ हो गये।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का एक विविध कैरियर था। उन्होंने बनाली एस्टेट में सहायक सेटलमेंट ऑफिसर के रूप में कार्य करना शुरू किया, इसके बाद कलकत्ता के उच्च न्यायालय में एक अनुवादक के रूप में काम किया और फिर बर्मा रेलवे में लेखा विभाग में क्लर्क के रूप में काम किया। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय बंगाल कांग्रेस के एक सदस्य भी थे और असहयोग आंदोलन में भाग लेते थे। बाद में, उन्हें हावड़ा जिला कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को एक ऐसा लेखक माना जाता है, जिन्होंने ग्रामीण बंगाल को अपने लेखन में अच्छी तरह से समाहित किया था। उनके कृतियों में एक ग्रामीण सार है, क्योंकि इनमें साधारण परिवारों, शहरों से बहुत दूर प्रकृति की गोद में, नदियों, पेड़ों और कृषि भूमि के बीच के जीवनकाल को कहानियों के रूप में दर्शाया गया है। उन्होंने महिलाओं के बारे में बहुत अधिक लिखा और एक पितृसत्तामक समाज में उनकी स्थिति के बारे में स्पष्ट रूप से और ईमानदारी से बताया। उन्होंने धर्म के नाम पर हो रहे सामाजिक भेदभाव, अन्याय और अंधविश्वास के खिलाफ विरोध किया।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का पहला उपन्यास ‘बड़ीदीदी’ (1907) पाठकों के बीच तुरन्त लोकप्रिय हो गया था। ‘बिंदुर छेले’ (1913), ‘परिणीता’ (1914), ‘बैकुन्ठेर उइल’ (1916), ‘देवदास’ (1917), ‘श्रीकांत’ (भाग I-IV, 1917-1933), ‘चरित्रहीन‘ (1917) उनके कुछ अन्य लोकप्रिय उपन्यास हैं। उनका उपन्यास ‘पाथेर दाबी’ (1926), जो अपनी क्रांतिकारी विषयवस्तु के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। बच्चों के लिए उन्होंने कई कहानियों और उपन्यास लिखे, जिसमें लोकप्रिय ‘रामर शुमाती’ और ‘लालू और उनके दोस्त’ जैसी लघु कथाएं शामिल हैं। उनकी कृतियों पर एक बड़ी संख्या में सफल फिल्में बनाई गई, जिसमें ‘देवदास’, ‘परिणीता’, ‘श्रीकांत’ और भी कई है।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को बंगाली साहित्य में अपना योगदान देने के लिए कई पुरस्कार मिले, जिनमें ‘कुंतालिन पुरस्कार’ (1903), ‘जगत्तारिणी स्वर्ण पदक’ (1923), ‘बंगाली संगीत परिषद’ (1934) की सदस्यता और ढाका विश्वविद्यालय द्वारा (1936) एक मानद डी.लिट् शामिल है।
16 जनवरी 1938 को उनकी मृत्यु से बंगाल साहित्य को भारी नुकसान हुआ था।