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तीरथ जब तक पर्यटन की संज्ञा में रहेंगे, गरिमा की चिंता बनी रहेगी !

तीरथ जब तक पर्यटन की संज्ञा में रहेंगे, गरिमा की चिंता बनी रहेगी!

कौशल मूंदड़ा

‘मंदिर में दर्शन करने आने वाले दर्शनार्थियों से अपील है कि वे शालीन परिधान पहनकर आएं…।’ यह इबारत इन दिनों राजस्थान ही नहीं देश के कई मंदिरों में लिखी हुई दिखाई देने लगी है। मंदिरों से ज्यादा यह इबारत सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। और अब वही हो रहा है जो किसी भी विषय के सोशल मीडिया पर साया होने के बाद होता है, चर्चा-परिचर्चा। एक तरफ पक्ष आ खड़ा हुआ है तो एक तरफ विपक्ष। और कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि राजस्थान में यह विषय आगामी कुछ दिनों में चुनावी मुद्दा भी बन जाए।

हाल ही, राजस्थान में उदयपुर के ऐतिहासिक जगदीश मंदिर ने इस इबारत के साथ वायरल की ऊंचाइयों को छुआ है। यह ऊंचाई तब और ऊंची हो गई जब राजस्थान का देवस्थान विभाग इसमें कूद पड़ा और इबारत को हटाने की कार्रवाई की। अब तक यह इबारत धर्म-समाज-श्रद्धालुओं तक सीमित थी, सरकारी विभाग के कूदते ही यह इबारत राजनीतिक गलियारों का हिस्सा बन गई। और चूंकि राजस्थान में कांग्रेस नीत गहलोत सरकार है, तब हिन्दूवादी संगठनों को सरकार पर सवाल उठाने का मौका मिल गया। हालांकि, आम आदमी देवस्थान विभाग पर आधारभूत संजीदा सवाल उठा रहा है कि जब भगवान के भोग की व्यवस्था नहीं होती तब तो देवस्थान विभाग के कान में जूं नहीं रेंगती, इस इबारत पर अचानक कैसे स्फूर्ति आ गई।

यह इबारत इस चुनावी साल में राजस्थान में क्या गुल खिलाती है, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि इस इबारत को मंदिरों में लिखने की आज जरूरत क्यों आन पड़ी है। इतने सालों में तो ऐसा कुछ नहीं नजर आता था, अब ऐसा क्या हो गया। कहीं न कहीं यह क्षरण होती सनातन संस्कृति की ओर संकेत है, शायद यही कारण है कि संस्कृति संरक्षण की पहल मंदिरों में इस इबारत से शुरू हुई है।

शालीन परिधानों की बात ही करनी है तो शुरुआत घर से होनी चाहिए। हिन्दू समाज का कौन सा घर ऐसा होगा जिसमें पूजाघर न हो। बड़े-बुजुर्ग सुबह-शाम दीया तो करते ही हैं। पूजा अर्चना भी स्नान के बाद ही की जाती है। भले दो मिनट ही सही, सुबह उठकर ईश्वर स्मरण सभी करते हैं। सनातन संस्कृति में बड़े-बुजुर्गों के समक्ष उपस्थित होते समय भी गरिमा का ख्याल रखा जाता है, यह गरिमा सिर्फ आचरण में ही नहीं, अपितु परिधानों में भी झलकती है।

आज भी बुजुर्गों के सामने आंखों में नम्रता और यदि घर की बहुएं हों तो वे सिर पर पल्लू अवश्य रखती हैं। मंदिर में बिराजमान आराध्य की प्रतिमा भी कोई निर्जीव मूरत नहीं मानी जाती, उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है और उसकी नित्य सेवा का भाव उसकी सजीवता को प्रकट करता है। ऐसे में उनके समक्ष जाने में भी गरिमा के संस्कार हैं, हालांकि यह संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी स्वतः स्थानांतरित होते हैं, इन्हें किसी इबारत में बांधने की आवश्यकता आज तक नहीं पड़ी।

ऐसे में मंदिर जाने पर शालीन परिधानों की अपील करने की मजबूरी मन के किसी कोने को कचोटती है। अव्वल तो यह कि आज की पीढ़ी मंदिर में कदम साल में कितनी बार रखती है, और यदि शालीन परिधान नहीं हैं तो इसके मायने यह समझे जाएं कि क्या वे टाइम पास और मौज-शौक की दृष्टि से मंदिर आ रहे हैं। इसकी बानगी हाल ही केदारनाथ धाम में सामने आई और वहां के प्रबंधन को इस पर सख्त रुख अख्तियार करना पड़ा। कुछ समय पूर्व सम्मेदशिखरजी पर भी विवाद का मूल का कारण ‘गरिमा’ की पालना को लेकर ही रहा।

सम्मेदशिखरजी के मामले में ‘धार्मिक पर्यटन’ शब्द को लेकर सवाल उठना शुरू हुआ जिस पर आज भी गंभीरता से विचार करना जरूरी है। पर्यटन एक वृहद शब्द है जिसमें देश से लेकर सात समंदर पार से आने वाले विदेशी की पसंद-नापसंद का ख्याल रखने और उससे कमाई करने का नजरिया शामिल है। यही कारण है जब धर्मस्थल के साथ धार्मिक पर्यटन का नजरिया शामिल हो जाता है तब उसके आसपास कुछ ऐसी गतिविधियां भी स्थापित होने लगती हैं जो उस धार्मिक स्थल की गरिमा के अनुरूप नहीं होतीं।

जिम्मेदारों और सरकारों को यह समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि तीरथ और पर्यटन शब्द में भावनाओं से लेकर नजरिये तक में जमीन-आसमान का फर्क है। धर्मस्थल को तीरथ के भाव से विकसित किया जाएगा तो उसमें आस्था स्थल की पवित्रता, मर्यादा, गरिमा सर्वोपरि ही रहेगी। लेकिन, यदि वहां पर्यटन का भाव है तब पवित्रता, मर्यादा, गरिमा प्राथमिकता में नहीं नजर आती।

पर्यटकों को तो हम जानते ही हैं, सिर्फ मंदिर ही नहीं, वे तो सार्वजनिक रूप से रेलवे, बस स्टैंड, एयरपोर्ट पर भी खुलेआम लिप किस कर लेते हैं। कुछ समय पहले यह मुद्दा भी उठा था कि सार्वजनिक स्थलों पर यह भी बोर्ड लगाए जाने चाहिए कि आप जिस देश में हैं वहां की संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करें। लेकिन, हमारे बॉलीवुड की मेहरबानी है कि पर्दे पर खुलेआम जो दिखाया जाता है, उस पर्दे पर चेतावनी बोर्ड कौन लगाए। यह हास्यास्पद नहीं है कि सिगरेट और शराब पीते हुए दृश्य दिखाते हैं, और नीचे सिर्फ एक लाइन लगाकर इतिश्री कर ली जाती है – सिगरेट-शराब का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। मेवाड़ की एक कहावत यहां उद्धृत करना उचित लगा रहा है, ‘खुद खावे काकड़ी, लोगां ने दे आकड़ी’।

खैर, उदयपुर में भी जिस जगदीश मंदिर को लेकर विवाद खड़ा हुआ है, उसके मूल में तीरथ के बजाय पर्यटन है। वहां पर आसपास या शहर के लोगों के परिधानों से ज्यादा समस्या नहीं है, दरअसल वहां देसी-विदेशी पर्यटकों की रेलमपेल रहती है, ज्यादातर उन्हीं के परिधान मंदिरों की गरिमा के अनुरूप नहीं होते। सकारात्मक पहलू यह है कि मंदिर पुजारियों ने उन्हें रोकने के बजाय वहां पर भारतीय परिधान उपलब्ध कराने का निर्णय किया है और सुरक्षित चेंजिंग रूम की व्यवस्था की भी बात कही है, ताकि मंदिर में प्रवेश गरिमापूर्ण परिधान के साथ हो।

देवस्थान विभाग द्वारा जगदीश मंदिर से इस तरह की अपील के पोस्टर फाड़ने के बाद सवाल यह भी उठा है कि यह कार्रवाई की ही क्यों गई, जबकि सरकारों की जिम्मेदारी तो किसी भी आस्था स्थल की पवित्रता, मर्यादा और गरिमा के संरक्षण की है। जिस तरह पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने ताजमहल में बोर्ड लगा रखा है कि वहां जूते-चप्पल पहनकर नहीं जाया जा सकता, उसी अनुरूप मंदिर में यदि कोई इस तरह का आग्रह करता है तो क्यों अनुचित है?

सभी मत-पंथों की बात करें तो हर आस्था स्थल के अपने-अपने नियम हैं जिन्हें बताया भी जाता है और लोग पालन भी करते हैं, वह भी श्रद्धा से। गुरुद्वारे में बिना सिर ढंके कोई प्रवेश नहीं करता, भले ही वह पुरुष हो और भले ही वह अन्य मतावलम्बी ही क्यों न हो। यह बात कई मुस्लिम आस्था स्थलों पर भी लागू है और बिना किसी आपत्ति श्रद्धालु श्रद्धा से इसका पालन करते हैं। चर्च में भी गरिमापूर्ण परिधान का स्वतः पालन नजर आता है। दक्षिण भारत में कई मंदिरों में भी श्रद्धालुओं द्वारा पालन करने योग्य नियम अंकित हैं।

फिलहाल सार यह है कि मंदिरों में इस तरह की अपील के बोर्ड टंगना सनातन संस्कृति की आंखें खोलने जैसा है, साफ है कि जब मंदिर में जाने के दौरान भी हमारे परिधान शालीन नहीं हैं, तब मंदिर के बाहर की दुनिया के क्या हाल होंगे। मंदिरों में यह अपील सिर्फ संकेत भर है, समझना समाज को है, तीरथ को तीरथ ही बनाए रखे, पर्यटन स्थल में तब्दील न होने दे।

इतना ही नहीं, इस इबारत के साथ यह भी जोड़ा जाना जरूरी है कि मंदिरों में लग रहे ऑटोमेटिक नगाड़े-घंटियों को हटाया जाना प्रस्तावित है, श्रद्धालुओं से निवेदन है कि वे आरती के समय अवश्य उपस्थित हों। कई मंदिरों से जलझूलनी एकादशी पर निकलने वाली रामरेवाड़ी को सरोवर तक ले जाने के लिए युवा कंधे नहीं मिल पा रहे हैं, युवा पीढ़ी इसमें सहयोग प्रदान करे।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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