सदियों तक चली घुसपैठी आक्रमणकारियों के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध की गाथा-20
जिन्होंने ब्रिटिश राज का विरोध किया और उन्हें दो बार हराया…
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व भी भारतीय स्थान स्थान पर अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होते रहे। स्थान स्थान से मिलने वाली ये चुनौतियाँ अग्रेजी सत्ता को थर्रा देती थीं। अंग्रेजों को डर था कि यदि अलग-अलग जगह होने वाले ये विद्रोह समन्वय के साथ और एक एकीकृत कमान के अंतर्गत हो गए तो भारत पर राज करने का और लूटने का उनका स्वप्न चकनाचूर हो जाएगा।
इसलिए कहीं भी होने वाले विद्रोह का वे बहुत ही ज्यादा सख्ती से दमन करते थे। विद्रोहियों के साथ ऐसा बर्ताव किया जाता था कि देखने वाले थर्रा उठें, और किसी अन्य की विद्रोह करने की हिम्मत न हो।
परंतु अंग्रेजों की यह दमनकारी नीतियाँ भारतवर्ष के वीर पुत्र और पुत्रियों के हौंसले नहीं डिगा सकीं। वे समस्त अत्याचारों के उपरांत भी अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होते थे और लड़ते थे।
दुख की बात यह थी कि कुछ भारतीय ही अपने निजी स्वार्थ व क्षुद्र लाभ के लिए कई बार इन वीरों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देते थे। यदि ऐसा न हुआ होता तो भारत को स्वतंत्रता सन् 1947 से कहीं पहले मिल गई होती।
इससे भी अधिक दुख और दुर्भाग्य की बात यह है कि आज भी देश में ऐसी देशद्रोही शक्तियां विद्यमान हैं जो हमारी मातृभूमि को निरंतर सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक हानि पहुँचा रहीं हैं। अतः आवश्यकता है समाज की सुप्त सज्जन शक्ति अपना मौन, सब संशय त्याग कर स्थान स्थान पर एकजुट होकर खड़ी हो और इन देशद्रोही शक्तियों का हर संभव प्रतिकार करे। ताकि भारत, भारत रह सके।
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