स्वदेशी आन्दोलन के प्रवर्तक विपिन चन्द्र पाल”20 मई/पुण्य-तिथि”
स्वतन्त्रता आन्दोलन में देश भर में प्रसिद्ध हुई लाल, बाल, पाल नामक त्रयी के एक स्तम्भ विपिनचन्द्र पाल का जन्म सात नवम्बर, 1858 को ग्राम पैल (जिला श्रीहट्ट, वर्तमान बांग्लादेश) में श्री रामचन्द्र पाल एवं श्रीमती नारायणी के घर में हुआ था। बचपन में ही इन्हें अपने धर्मप्रेमी पिताजी के मुख से सुनकर संस्कृत श्लोक एवं कृत्तिवास रामायण की कथाएँ याद हो गयी थीं।
विपिनचन्द्र प्रारम्भ से ही खुले विचारों के व्यक्ति थे। 1877 में वे ब्रह्मसमाज की सभाओं में जाने लगे। इससे इनके पिताजी बहुत नाराज हुए; पर विपिनचन्द्र अपने काम में लगे रहे। शिक्षा पूरी कर वे एक विद्यालय में प्रधानाचार्य बन गये। लेखन और पत्रकारिता में रुचि होने के कारण उन्होंने श्रीहट्ट तथा कोलकाता से प्रकाशित होने वाले पत्रों में सम्पादक का कार्य किया। इसके बाद वे लाहौर जाकर ‘ट्रिब्यून’ पत्र में सहसम्पादक बन गये। लाहौर में उनका सम्पर्क पंजाब केसरी लाला लाजपतराय से हुआ। उनके तेजस्वी जीवन व विचारों का विपिनचन्द्र के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा।
विपिनचन्द्र जी एक अच्छे लेखक भी थे। बंगला में उनका एक उपन्यास तथा दो निबन्ध संग्रह उपलब्ध हैं। 1890 में वे कलकत्ता लाइब्रेरी के सचिव बने। अब इसे ‘राष्ट्रीय ग्रन्थागार’ कहते हैं। 1898 में वे इंग्लैण्ड तथा अमरीका के प्रवास पर गये। वहाँ उन्होंने भारतीय धर्म, संस्कृति तथा सभ्यता की विशेषताओं पर कई भाषण दिये। इस प्रवास में उनकी भेंट भगिनी निवेदिता से भी हुई। भारत लौटकर वे पूरी तरह स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयासों में जुट गये।
अब उन्होंने ‘न्यू इंडिया’ नामक साप्ताहिक अंग्रेजी पत्र का सम्पादन किया। इनका जोर आन्दोलन के साथ-साथ श्रेष्ठ व्यक्तियों के निर्माण पर भी रहता था। कांग्रेस की नीतियों से उनका भारी मतभेद था। वे स्वतन्त्रता के लिए अंग्रेजों के आगे हाथ फैलाना या गिड़गिड़ाना उचित नहीं मानते थे। वे उसे अपना अधिकार समझते थे तथा अंग्रेजों से छीनने में विश्वास करते थे। इस कारण शीघ्र ही वे बंगाल की क्रान्तिकारी गतिविधियों के केन्द्र बन गये।
1906 में अंग्रेजों ने षड्यन्त्र करते हुए बंगाल को हिन्दू तथा मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर बाँट दिया। विपिनचन्द्र पाल के तन-मन में इससे आग लग गयी। वे समझ गये कि आगे चलकर इसी प्रकार अंगे्रज पूरे देश को दो भागों में बाँट देंगे। अतः उन्होंने इसके विरोध में उग्र आन्दोलन चलाया।
स्वदेशी आन्दोलन का जन्म बंग-भंग की कोख से ही हुआ। पंजाब में लाला लाजपतराय तथा महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस आग को पूरे देश में फैला दिया। विपिनचन्द्र ने जनता में जागरूकता लाने के लिए 1906 में ‘वन्देमातरम्’ नामक दैनिक अंग्रेजी अखबार भी निकाला।
धीरे-धीरे उनके तथा अन्य देशभक्तों के प्रयास रंग लाये और 1911 में अंग्रेजों को बंग-भंग वापस लेना पड़ा। इस दौरान उनका कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो गया। अतः उन्होंने नये राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का गठनकर उसके प्रसार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया।
वे अद्भुत वक्तृत्व कला के धनी थे। अतः उन्हें सुनने के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। एक बार अंग्रेजों ने श्री अरविन्द के विरुद्ध एक मुकदमे में गवाही के लिए विपिनचन्द्र को बुलाया; पर उन्होंने गवाही नहीं दी। अतः उन्हें भी छह माह के लिए जेल में ठूँस दिया गया।
आजीवन क्रान्ति की मशाल जलाये रखने वाले इस महान देशभक्त का निधन आकस्मिक रूप से 20 मई, 1932 को हो गया।