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मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में बाल रूप में ही क्यों बना शंकराचार्य की मूर्ति?

मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में बाल रूप में ही क्यों बना शंकराचार्य की मूर्ति?

~मध्यप्रदेश की शिव नगरी ओंकारेश्वर में आदि शंकराचार्य की 108 फीट ऊंची 12 वर्षीय बाल रूप मूर्ति बनाया गया है

~1200 साल पहले आठ साल की उम्र में शंकराचार्य केरल के कालड़ी से 1600 किलोमीटर पैदल चलकर अपने गुरु की तलाश में ओंकारेश्वर आए थे। इसीलिए बाल रूप में बनाई गई है प्रतिमा l

~यहां शंकराचार्य को उनके गुरु के रूप में गोविंदपाद मिले थे। यही कारण है कि यहां मूर्ति बनवाई है।

~इसके लिए 100 से अधिक संतों को बुलाकर उनके साथ विमर्श सभा किया गया था l

~विचार विमर्श होने के बाद ही तय किया गया कि एकात्म धाम में लगने वाली प्रतिमा शंकराचार्य के बाल स्वरूप की होगी, क्योंकि वह इसी अवस्था में ओंकारेश्वर आए थे।

~शंकराचार्य का एक ही चित्र था जिसे मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा ने 1905 में बनाया था

~कई चित्रकारों से उनकी कलाकृति मांगी गई और आखिर में देश के प्रसिद्ध चित्रकार वासुदेव कामत को बाल शंकराचार्य की पेंटिंग बनाने का जिम्मा सौंपा गया। वासुदेव कामत देश के जाने माने चित्रकार हैं, जिन्हें कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

~मूर्ति को वस्त्र किस तरह से पहनाया जाएगा। ये तक ध्यान रखा गया कि कहां से कपड़ा मुड़ेगा, कहां सलवटें आएंगी। इसके लिए केरल जाकर एक्सपर्ट से सलाह ली गई। इस आधार पर फिर स्केच बनाए गए। इस तरह कुल चार स्केच लेफ्ट, राइट, फ्रंट और बैक के बनाए गए।

~मस्तक पर त्रिपुंड की लंबाई ललाट के एक सिरे से दूसरे सिरे तक होती है। कालाग्नि रूद्र उपनिषद के अनुसार त्रिपुंड को हाथ की तीन अंगुलियों से लगाते हैं और शरीर के 22 जगह पर त्रिपुंड लगाने का विधान है। इसी का अनुसरण प्रतिमा बनाने में किया गया है।

~मूर्ति सौंपने के बाद किसी तरह के बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि 11 फीट की मूर्ति में एक इंच का बदलाव 108 फीट के विशाल स्वरूप में 3-4 फीट का होता है। इस कारण इसे बनाते समय बहुत ज्यादा सावधानी बरती गई थी।

~संन्यासोपनिषद से दंड के विधान को समझा और अंत में यह निष्कर्ष निकला कि दंड की लंबाई संन्यासी की भौंहों से जमीन तक होनी चाहिए। दंड पलाश की लकड़ी का होता था, जिसमें आठ गांठ होने का विधान पता चला।

~चेहरे वाला हिस्सा यूं तो 108 फीट की प्रतिमा का 25 प्रतिशत हिस्सा भी नहीं है, लेकिन प्रतिमा का वह हिस्सा है, जहां सबसे ज्यादा मेहनत की और कराई गई है।

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