भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु/ शहीद दिवस विशेष -3

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु/ शहीद दिवस विशेष -3

23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई। उस समय सावरकर ने निम्नलिखित कविता की रचना की –

हा, भगत सिंह, हे हे!
तुम फाँसी पर चढ़ गए, हमारे लिए!
राजगुरु, तुम हा!
वीर कुमार, राष्ट्रीय युद्ध में शहीद
हे हाँ! जय जय हे!
आज की यह आह कल जीतेगी
हैं।”
शाही ताज घर आएगा
उससे पहले आपको मृत्यु का मुकुट पहनाया गया।
हम अपने हाथों में हथियार लेंगे,
तुम्हारे साथ वाले दुश्मन को मार रहे थे!
पापी कौन है?
आपके इरादों की बेजोड़ पवित्रता की पूजा कौन नहीं करता
जाओ, शहीद!
हम गवाही के साथ शपथ लेते हैं। हथियारों के साथ लड़ाई विस्फोटक है,
हम आपसे पीछे रह गए हैं, आजादी की लड़ाई और जीतेंगे !!
हाय भगत सिंह, हे हा!

भगत सिंह और उनके साथियों के मुकदमों और वकीलों की जानकारी

• भगत सिंह को दो मामलों में अभियुक्त बनाया गया था – पहला असेम्बली बम कांड और दूसरा सांडर्स हत्याकांड।
• पहले मामले की सुनवाई दिल्ली में एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज एफ.बी. पूल के अदालत में 7 मई 1929 को शुरू हुई। सरकार की तरफ से राय बहादुर सूरज नारायण वकील थे।
• आगे की कार्यवाही दिल्ली की एक सेशन कोर्ट में जज मिडलटन की अदालत में जून 1929 में शुरू हुई थी। यहां भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एक संयुक्त बयान दिया था, जिसे वकील आसफ अली ने पढ़ा था। वह उनके वकील नही बल्कि कानूनी सलाहकार के तौर पर वहां मौजूद थे। इस सेशन कोर्ट ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई और भगत सिंह को मियांवाली, मुल्तान जेल भेज दिया गया।
• इस फैसले के खिलाफ लाहौर हाईकोर्ट में अपील की गई थी। हाईकोर्ट के दो ब्रिटिश जजों – फोर्ड और एडिसन ने सेशन कोर्ट के आजीवन कारावास के दंड को बरकरार रखा था।
• उपरोक्त दोनों मामलों में भगत सिंह ने खुद ही अपनी बात न्यायालय के समक्ष रखी थी। हालांकि उन्हें कई वकीलों द्वारा कानूनी सहायता लगातार मिलती रही थी।
• 10 जुलाई 1929 को सांडर्स हत्या के मामले में भगत सिंह और उनके साथियों को लाहौर सेंट्रल जेल के स्पेशल मजिस्ट्रेट राय साहब पंडित किशन की अदालत में पेश किया गया। यहां सरकार (क्राउन) की तरफ से कार्डेन नोड (सरकार के वकील), खान साहिब कलंदर अली (Government Pleader and Prosecutor) खान, और गोपाल लाल ने पक्ष रखा। ब्रिटिश सरकार की तरफ से मुख्य भूमिका कार्डेन नोड ने ही निभाई थी।
• दूसरी तरफ, भगत सिंह और उनके साथियों को लाला धूनी चंद, मलिक बरकत अली, मेहता अमीन चंद, लाला बिशन नाथ, अमलोक राम कपूर, दीवान चंद खन्ना, डब्लू.सी. दत्त, मेहता पूरन चंद, लाला अमर दास, बसीर अहमद और बलजीत सिंह द्वारा समय-समय पर कानूनी सहायता मिलती थी।
• 21 जून 1930 को ब्रिटिश सरकार द्वारा एक ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई जिसकी सुनवाई जस्टिस जे.के. टैप, और जस्टिस अब्दुल कादिर को करनी थी।
• भगत सिंह को ट्रिब्यूनल द्वारा फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद 15 अक्टूबर, 1930 को प्रिवी कॉउन्सिल में डी.एन. प्रिट द्वारा दया याचिका डाली गई। पांच दिन बाद इस याचिका को खारिज कर दिया गया।
• 2 जुलाई 1930 को एक Habes Corpus की याचिका देशराज के माध्यम से लाहौर हाईकोर्ट में लगायी गई थी जिसमें उन्होंने सरकार के स्पेशल ट्रिब्यूनल वाले आर्डिनेंस को चैलेंज किया था। इस याचिका के पक्ष में छह वकीलों – जीसी नारंग, एम सलीम, जेएन अग्रवाल, मेहर चंद महाजन, एम बरकत अली, मोती सागर ने बात रखी थी। जबकि सरकार की तरफ से वकील एन.एन. सरकार को नियुक्त किया गया था।
• 23 मार्च 1931 को पंजाब हाई कोर्ट में एडवोकेट अमोलक राम और बद्री प्रसाद द्वारा एक स्पेशल लीव एप्लीकेशन लगाई गई। इस याचिका को जस्टिस भिड़े ने खारिज कर दिया था।

• आखिरी में वकील प्राणनाथ मेहता द्वारा भगत सिंह और उनके साथियों से आखिरी बार उनकी इच्छा जानने के लिए जेल में मुलाकात की थी।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भगत सिंह के मुकदमों के शुरूआती समय यानि 1929 में राय बहादुर सूरज नारायण नाम का एक वकील शामिल था। उसके बाद यह व्यक्ति किसी भी कार्यवाही में कभी सामने नहीं आया। दावा किया जाता है कि सूरज नारायण का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से था, जोकि एक भ्रामक और तथ्यरहित है :
• दिल्ली की एक एडिशनल अदालत में सूरज नारायण सरकार की तरफ से वकील थे। इस अदालत ने भगत सिंह को कोई सजा नहीं सुनाई थी।
• भगत सिंह को दिल्ली के एक सेशन कोर्ट और बाद में लाहौर हाईकोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। इन दोनों ट्रायल के दौरान सूरज नारायण नाम का कोई भी वकील शामिल नहीं था।
• भगत सिंह को फांसी की सजा 21 जून 1930 को ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित एक ट्रिब्यूनल ने दी थी। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान भी सूरज नारायण नाम का कोई वकील मौजूद नहीं था।
• सरदार भगत सिंह पर प्रकाशित दर्जनों पुस्तकों में किसी भी सूरज नारायण नाम के वकील की जानकारी नहीं दी गयी है। इस नाम का जिक्र एकमात्र वामपंथी इतिहासकार ए.जी. नूरानी द्वारा The Trial of Bhagat Singh नाम से प्रकाशित पुस्तक में मिलता है। हालाँकि उन्होंने भी सूरज नारायण के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े होने का कोई तथ्य नहीं दिया है।
• भगत सिंह के मुकदमें की शुरूआती कुछ महीनों की सुनवाई दिल्ली में साल 1929 में हुई थी। जबकि यहाँ संघ के कार्यों की शुरुआत साल 1939 में हुई थी। अतः सूरज नारायण के यहाँ संघ से जुड़ने का कोई सवाल पैदा नहीं होता है।
• दिल्ली के बाद भगत सिंह से सम्बंधित अधिकतर न्यायिक कार्यवाहियां पंजाब में हुई थी। जबकि पंजाब में संघ की गतिविधियाँ 1935 में शुरू हुई थी।
अतः सूरज नारायण नाम के किसी भी वकील का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई सम्बन्ध नहीं मिलता है। हालाँकि, यह जो भी व्यक्ति होगा उसका भगत सिंह को आजीवन कारावास सुनाने वाली अदालत और फांसी देने वाले ट्रिब्यूनल दोनों की न्यायिक प्रकिया से भी कोई प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं था।

बलिदान
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सभी लाहौर जेल में बंद थे। इस बीच कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हो गया था। जवाहरलाल नेहरु इसके अध्यक्ष बने। गाँधी नमक सत्याग्रह के चलते जेल चले गए और उन्हें 25 जनवरी 1931 को रिहा कर दिया गया। ऐसा लगा कि अब भगत सिंह को भी रिहा कर दिया जाएगा। देश भर में तीनों क्रांतिकारियों को छोड़ने का दवाब बनाया जाने लगा। सभी क्रांतिकारियों से सुभाष चन्द्र बोस, बाबा गुरुदत्त सिंह, रफ़ी अहमद किदवई, मोतीलाल सक्सेना और मोतीलाल नेहरु ने मुलाकात की थी।

भगत सिंह अपने परिवार से आखिरी बार 3 मार्च 1931 को मिले।

उनके क़ानूनी सलाहकार प्राणनाथ मेहता ने उन्हें समझाया कि वे गवर्नर जनरल से माफी मांग ले तो वे बच सकते हैं। ऐसा करने से भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों ने मना कर दिया। फिर भी 20 मार्च 1931 को प्राणनाथ एक ड्राफ्ट बना लाये। इसके लिए तीनों कभी राजी नहीं हुए।
जिस न्यायाधिकरण ने भगत सिंह को सजा दी उसे बाहर भेज दिया गया था। लाहौर उच्च न्यायालय को उनकी फांसी की सजा देने के लिए अधिकृत किया गया। भगत सिंह के पिता ने इसे चुनौती देते हुए कहा कि जिस न्यायाधिकरण ने उन्हें सजा दी है वही फांसी की तारीख तय कर सकती हैं। हालाँकि जज ने इस मामले को विचाराधीन रख लिया। आखिरकार जज ने उनके पिता की अपील को नामंजूर कर दिया। सरकारी वकील कर्देन नोड ने फांसी का हुक्म भी ले लिया। 23 मार्च 1931 को 7 बजकर 33 मिनट पर सभी को फांसी दे दी गई।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने भगत सिंह का समर्थन करते हुए लिखा है, “हिंसा और अहिंसा हमारे देश का पुराना दार्शनिक प्रश्न है। प्रकृति हमें उत्पन्न करती है और हमारी रक्षा करती है। साथ ही एक हिलोर में हमारा नाश करती है। जिसके ऊपर समाज के संचालन का दायित्व रहता है उन्हें रक्षा और संहार दोनों काम करने होते हैं।

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