वीर क्राँतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के “4 नवम्बर 1845 जन्मदिवस”

4 नवम्बर 1845 सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म

युवकों की सशस्त्र क्रान्ति के जन्मदाता : जेल की प्रताड़ना से बलिदान

–रमेश शर्मा

कल्पना कीजिए जेल में कितनी प्रताड़ना मिली होगी कि एक सुगठित सशक्त देह और बुलन्द हौंसला लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र अभियान चलाने वाले क्राँतिकारी के प्राण ही साथ छोड़ दें । यह वीरता और करुणा से भरी कहानी है सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के की । सामान्य जनों और युवकों को संगठित कर सशस्त्र क्रान्ति का उद्घोष करने वाले वासुदेव बलवंत फड़के को आद्य क्राँतिकारी माना जाता है ।

स्वतंत्रता के लिये जो सशस्त्र क्राँतिकारी आँदोलन बंगाल में खुदीराम बोस वारेन्द्र मित्रा, पंजाब में भगतसिंह या मध्यभारत में चंद्रशेखर आजाद और राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्राँतिकारियों ने आरंभ किया था । इसकी नींव में 1871 में आरंभ युवकों और जन सामान्य का वह सशस्त्र अभियान था जो महाराष्ट्र के रायगढ़ से आरंभ हुआ था । और इसे आरंभ करने वाले थे कुशल संगठक और वीर वासुदेव बलवंत फड़के। इनका जन्म 4 नवम्बर 1845 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के अंतर्गत शिरधोन नामक गाँव में हुआ था । उनके पिता बलवंतराव फड़के अपने समय के सुप्रसिद्ध संगीताचार्य थे। यह एक संस्कारी चित्तपावन ब्राह्मण परिवार था । जिसका समर्पण सदैव राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये रहा है । 1857 की क्रांति का जब दमन हुआ तब वासुदेव मात्र बारह तेरह वर्ष के थे । एक तो परिवार की पृष्ठभूमि, उसपर उन्होंने क्राँतिकारियों का क्रूरता पूर्वक दमन देखा था । इससे उनके मन में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा पनप रहा था । उनकी आरंभिक शिक्षा उनके गाँव में ही और आगे की शिक्षा मुम्बई में गये । पढ़ाई के साथ उन्होंने धर्म दर्शन का भी अध्ययन किया । उन्हे नियमित व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने का भी शौक था इसके लिये वे प्रतिदिन अभ्यास करते थे ।

शिक्षा पूरी करके ‘ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेलवे’ और ‘मिलिट्री फ़ाइनेंस डिपार्टमेंट’, पूना में नौकरी कर ली । अपनी नौकरी के साथ उन्होने जंगल में एक व्यायामशाला भी स्थापित की । यहाँ वे युवकों को नियमित व्यायाम और कुश्ती का प्रशिक्षण देते थे । समय के साथ यह व्यायाम शाला इतनी प्रसिद्घ हुई कि इससे ज्योतिबा फुले जैसे समाज सेवक और लोकमान्य तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानी भी जुड़े। इस व्यायाम शाला में व्यायाम और कुश्ती के साथ शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा । वासुदेव पूरी तन्मयता से अपने काम में लगे थे कि माता की बीमारी की सूचना आई । उन्होंने गाँव जाने के लिये अवकाश माँगा, जो नहीं मिला । वासुदेव नौकरी छोड़कर गाँव आ गये । माता के अंतिम संस्कार के बाद वे पूरी तरह राष्ट्र जागरण के काम में लग गये । उन्होंने दो और व्यायाम शालाएँ आरंभ कीं। व्यायाम शाला आने वाले युवकों में उन्हें गोपाल हरि कर्वे, विष्णु गद्रे, गणेश देवधर जैसे कुछ क्राँतिकारी युवा मिले । इनके साथ उन्होंने सशस्त्र युवकों की एक टोली बनाई। इस टोली ने स्थानीय नागरिकों को शासन की ज्यादतियों से जन सामान्य की रक्षा करने का संकल्प लिया । जहाँ कहीं शोषण और दमन का समाचार मिलता । यह टोली पहुँच जाती । एक प्रकार से इस टोली ने एक क्राँतिकारी सेना का रूप ले लिया जिसकी संख्या तीन सौ तक पहुँच गई थी । इसे भारत की सबसे पहली क्रांतिकारी सेना माना गया ।

1857 की क्रांति के दमन के बाद अंग्रेजों ने बसूली अभियान तेज कर दिया था । करों के रूप में यह बसूली भले राजाओं से या सीधे व्यापारियों से इसका सीधा दबाब किसानों और लोक जीवन के कुटीर उद्योग पर पड़ा। इसी बीच उस क्षेत्र में अकाल पड़ गया । पर बसूली न रुकी । अकाल में जन सामान्य की सेवा और सरकारी बसूली रोकने के लिये वासुदेव जी ने अपनी सेना का विस्तार किया और इसमें समीपवर्ती वनक्षेत्रो में कोळ, भील तथा धांगड जनजातियों को भी जोड़ा और इस सेना को एक नाम ‘रामोशी’ नाम दिया । अपने इस मुक्ति संग्राम के अंतर्गत उन्होंने बलपूर्वक बसूली करने वाले अंग्रेजों के एजेन्टों और साहूकारों को रोकना चाहा, चेतावनियाँ दीं और जो नहीं मानते उनसे धन छीन कर कर निर्बल समाज में वितरित करना आरंभ कर दिया । इस सेना के निशाने पर अंग्रेज सिपाही और वे अंग्रेज भक्त थे जो भूख से मर रही जनता की बिना परवाह किये अनाज एकत्र करके अंग्रेजों के पास भेज रहे थे। वासुदेव बलवंत फड़के और, उनकी सेना ने ऐसे अंग्रेज भक्तों और अनाज गोदामो को निशाना बनाया । वे अनाज लूट कर जनता में वितरित कर देते । एक प्रकार से रायगढ़ से पुणे तक का पूरा क्षेत्र मानों इस सेना के नियंत्रण में आ गया था । यह उनकी प्रसिद्धि का प्रभाव था कि इस क्षेत्र में अंग्रेजों के एजेन्ट और पुलिस कर्मचारी जाने से भय खाने लगे ।

उन्हें पकड़ने के लिये अंग्रेजों ने अनेक प्रयत्न किये । उनकी सूचना देने वाले को चालीस हजार रुपये नगद पुरस्कार देने की घोषणा की गई। जगह जगह पोस्टर लगाए गये पर वे ऐसे महा नायक थे कि उनके विरुद्ध कोई सामने न आया । पूना उनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था । एक प्रकार से पुणे का संचालन उन्हीं के हाथ में था । अंत में सेना भेजी गयी । सेना ने पुणे नगर पर घेरा डाला । रामोशी सेना ने आमने सामने का युद्ध भी लड़ा पर सेना के पास तोपखाना था । स्थिति की गंभीरता को देखकर वासुदेव बीजा पुर की ओर चले गये और चले गये तथा छापामार युद्ध की शैली अपनाई । महाराष्ट्र के सात जिलों में उनकी सेना का जबरदस्त प्रभाव था। जब सैन्य अभियान को भी सफलता न मिली तब 13 मई 1879 को पुणे के सरकारी भवन में अंग्रेजों ने बैठक बुलाई। इसकी खबर वासुदेव फड़के को लगी । सशस्त्र क्राँतिकारियों ने अचानक धावा बोल दिया । यह धावा इतना आकस्मिक था किसी को भान तक न हुआ । अनेक अंग्रेज अफसर मारे गये । क्राँतिकारियों ने भवन में आग भी लगा दी। इस घटना की गूँज लंदन तक हुई । उन पर ईनाम की राशि बढ़ाकर पचास हजार कर दी गई और उनकी गिफ्तारी के लिए अनेक योजनाएं बनीं, लेकिन चतुराई और साहस से वह हर बार उन पर पानी फेर देते । अंततः अपने एक विश्वासघाती के कारण वे 20 जुलाई 1879 को गिरफ्तार हुये । उन्हें काला पानी जेल भेज दिया गया । जेल में भारी अत्याचार हुये अत्याचारों के चलते जेल में ही 17 फरवरी 1883 को उन्होंने प्राण त्याग दिये ।

वे भले दुनियाँ छोड़ गये पर भारत में क्राँतिकारी आँदोलन का एक मार्ग दिखा गये । उन्हीं की राह पर 1898 के आसपास महाराष्ट्र में चाफेकर बंधुओं ने क्राँतिकारी आँदोलन आरंभ करने का प्रयत्न किया और आगे चल कर पूरे देश में यह लहर चली । यह युवकों का सशस्त्र क्राँतिकारी आँदोलन ही था जिसने अंग्रेजों की नींव हिला दी और अंततः अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा। उनका मत था कि-‘‘भूख से हजारों लोग मर रहे हैं, उनको बचाने का दायित्व हमारा है । ये लोग अन्नाभाव में भूखे मरते रहें और हम पेट भरते रहें, यह सबसे बड़ा पाप है । अतएव ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह आवश्यक है ।’’ इस प्रकार वासुदेव बलवंत फड़के भारत के पहले आद्य क्राँतिकारी माना गये ।

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