आपातकाल लोकतंत्र का काला अध्याय
1975 में तत्कालिन इन्दिरा गांधी सरकार द्वारा आज ही के दिन राजनैतिक विरोध को कुचलने के लिये ,भारत के लोकतंत्र की हत्या का कुत्सित प्रयास किया गया था। स्वयं की सता बचाने के लिए आन्तरिक आपात्काल लगा दिया गया था । लोकतंत्र के नाम पर ये काला धब्बा काँग्रेस की घोर अलोकतांत्रिक अवधारणा पर आधारित था जिसके अंतर्गत मीडिया और न्यायपालिका को बलपूर्वक नियन्त्रित किया गया। जिन्होने भी प्रतिरोध किया , उन्हे जेल में बंद कर दिया गया। प्रतिरोध की झलक मात्र मिलने पर मीडिया प्रतिष्ठानों के भवनों पर बुलडोजर चलाने की धमकियां दी गई। इंडियन एक्सप्रेस का वाकया इस संदर्भ में तो सर्वविदित ही है।
लोकतंत्र सर्मथकों की देशव्यापी गिरफ्तारियां और रहस्यमयी हत्याएं की गई। लोकतंत्र की रक्षा के लिए खुल कर आवाज बुलंद करने के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया और लाखों स्वयंसेवकों ने जन सामान्य के साथ सत्याग्रह कर गिरफ्तारियां दी , उन्हें अमानुषिक यातनाएं दी गई। इंदिरा गांधी के लोकसभा निर्वाचन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा भ्रष्ट और अनैतिक कारणों से उनकी सदस्यता निरस्त करने से आरम्भ हुआ कांग्रेस के लोगो का यह क्रोध बेलगाम रूप से समाज और विपक्ष पर टूटने लगा था। आखिर उन्हें ये कैसे स्वीकार होता कि न्यायपालिका इंदिरा गांधी पर प्रश्न चिन्ह उठाए ? वो तो एक परिवार को लोकतंत्र से भी ऊपर मानते थे।
परिणामस्वरूप , जय प्रकाश नारायण अटल बिहारी , लालकृष्ण आडवाणी , राजनारायण, राम मनोहर लोहिया समेत समस्त विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर भारत को चीन या अफ्रीका की भांति विपक्ष विहीन बनाने का सुनियोजित षड्यंत्र चलाया गया। एक संविधानेतर समानांतर समूह इंदिरा गांधी के इस अभियान को मूर्त रूप देने में कई कुख्यात तानाशाह की भांति व्यहवार करने लगा था।
इंदिरा गांधी के इस तानाशाही शासन का संगठित विरोध शुरू हुआ, जागरूक नागरिक , सजग संस्थाएं, संघ और उसके विविध संगठनों और कई अन्य सामाजिक समूहों ने उस भय के वातावरण में भी लोकतंत्र के दीपक को जनता की आशाओं के अनुरूप जागृत रखा, आपातकाल का सतत विरोध करते रहे।जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में इन संगठनों ने आपातकाल के विरोध में अविस्मरणीय और अग्रणी भूमिका निभाई। वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण पर बेरहमी से लाठिया बरसा कर भयग्रस्त इंदिरा सरकार ने उन्हें AIIMS में बंदी बना लिया। सर्व सामान्य व्यक्ति के इस व्यापक विरोध का सामना करने में असमर्थ इंदिरा सरकार ने अभूतपूर्व निर्णय लेते हुए ,अपने बहुमत का दुरुपयोग करते हुए लोकसभा का कार्य काल ही बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया जिससे अगले लोकसभा चुनावों में जनता के क्रोध का सामना न करना पड़े। यह भी स्मरण रहे कि तत्कालीन सरकार की इस तानाशाही का साम्यवादी दल ने अपने विदेशी कम्युनिस्ट आकाओं के कहने पर इस लोकतंत्र के गला घोंटने का सक्रिय समर्थन किया था जो आज अपने आप को लोकतंत्र के समर्थक होने का ढ़ोंग रचते हैं। इंदिरा गांधी, संजय गांधी और चौधरी बन्सीलाल की ज़ालिम तिकडी ने दुनिया भर में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की शर्मनाक किरकिरी करवाई। उस समय परिवार की चाटुकारिता की हद तब हो गई जब आसाम निवासी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देव्कान्त बरुआ ने इंदिरा को भारत के समतुल्या बता कर कहा – India is Indira, Indira is India. इस प्रकार भारतमाता के प्रति कांग्रेस के अनादर को जगजाहिर कर दिया था ।
कभी कभी लगता है कि उस दल को , उस नेतृत्व को, उस राजनीतिक विरासत को जिसने लोकतंत्र की हत्या करने का दुस्साहस किया , क्या हमारी राजनीतिक व्यवस्था मे बने रहने का कोई नैतिक अधिकार है ? और तो और किस मुंह से वो उनके समर्थक वामपंथी आज लोकतंत्र , न्याय की बात करते हैं ? क्या कभी यह उन दिनों के अपने कुकृत्यो की क्षमायाचना करेंगें ? जिनके DNA में ऐसी तानाशाही , राजनीतिक हत्या , नरसंहार, और सर्वव्यापी भ्रष्टाचार हो, वो किस नैतिकता से दूसरो पर उँगली उठा सकते हैं ? आखिर जनता भी सब समझने लगी है?
आज का दिन दरअसल लोकतंत्र की रक्षा में सामने आए उन अनगिनत और जाने अनजाने लोकतंत्र सेनानियों के साहस को नमन करने का भी दिन है जो अकल्पनीय अत्याचार सह कर भी आपातकाल के विरोध में समर्पित रहे, झुके नहीं। आज भारत का लोकतंत्र जीवंत है, सुदृढ़ है, फल फूल रहा है। एक ऐसा लोकतंत्र जिसकी प्रशंसा समस्त विश्व करता है। भारत लोकतंत्र की जननी है , भारत की विरासत ही लोकतंत्र की है। जिस भारत की सभ्यता संस्कृति में लिच्छवी, वज्जी, चोल शासन जैसी लोकतांत्रिक परंपराएं विकसित हुई, जिस भारत ने विश्व को सहिष्णुता, लोकतंत्र, उत्तरदायित्व, सुशासन का पाठ पढ़ाया, उसे कोई अधिनायकवादी दल, प्रवृत्ति या परिवार लाख प्रयासों के बावजूद समाप्त नहीं कर सकता।
पर हमें 25 जून 1975 को स्मरण करके सजग और सचेत अवश्य रहना होगा।


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