Welcome to Vishwa Samvad Kendra, Chittor Blog समाचार स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक, स्वतन्त्रता नियमित चलने वाली प्रक्रिया-भाग 9
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स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक, स्वतन्त्रता नियमित चलने वाली प्रक्रिया-भाग 9

स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक, स्वतन्त्रता नियमित चलने वाली प्रक्रिया
समाज-निर्भर तंत्र 9 वां लेख
(आध्यात्मिक उन्नति से संबंधित)
विषय – शिक्षा

भारतीय चिंतन के अनुसार सर्वांगीण उन्नति में भौतिक उन्नति के साथ
आध्यात्मिक उन्नति भी आती है। इस दृष्टि से नागरिकों में आध्यात्मिक गुणों का विकास भी आवश्यक है, जिसमें शिक्षा और संस्कृति की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इनके अलावा क्रीडा और स्वास्थ्य की भी इसमें अप्रत्यक्ष भूमिका है। क्रीडा से स्वास्थ्य अच्छा होकर शरीर सुदृढ़ होता है और ‘सुदृढ शरीर में सुदृढ़ मन रहता है’। (A healthy mind resides in a healthy body.) मन अच्छा होता है तभी व्यक्ति आध्यात्मिकता की ओर झुकता है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, ‘अगर गीता का तत्त्वज्ञान समझना है तो फुटबाल मैदान में जाओ’ ।

[• शिक्षा]

स्वामी विवेकानन्द के कहे अनुसार शिक्षा का उद्देश्य है उस पूर्णता (दिव्यत्व) को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। –

पूर्णता के लिए आवश्यक है मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति (भौतिक और आध्यात्मिक), क्योंकि तभी वह धर्म, अर्थ और काम इन पुरुषार्थों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्त करता है, दिव्यत्व प्राप्त करता है। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति है और उसके आधारपर उसकी अव्यक्त पूर्णता का शनैः शनैः प्रकटीकरण होता है।

शिक्षा के कारण व्यक्ति की सर्वांगीण उन्नति होती है। वह ऐसी योग्यताएँ प्राप्त करता है, जिनके आधारपर वह अपने परिवार का भरण-पोषण करने के अलावा समाजहित के काम भी कर सके। शिक्षा के कारण वह एक अच्छा मानव बनता है। इसके साथ ही वह एक सच्चा देशभक्त नागरिक भी बनता है, जिसे देश के इतिहास और संस्कृति पर गर्व हो और जो देशहित के लिए आवश्यक सारी बातें करने के लिए सदैव तत्पर हो।

शिक्षा व्यवस्था में सर्वाधिक महत्त्व शिक्षक का है, क्योंकि उसके द्वारा ही शिक्षा ग्रहण करनेवाला जैसा बनाना चाहिए वैसा बनता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में शिक्षक (गुरु) का स्थान बहुत बड़ा है।

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय ।

बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय। के अलावा शिक्षा के अंतर्गत क्या-क्या सिखाया जा रहा है यह भी गुरु महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा तंत्र की आर्थिक व्यवस्था और उसका संचालन भी महत्त्वपूर्ण है।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि, हमारी शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि लोग भारत के इतिहास को अच्छी तरह जानें। इस दृष्टि से इतिहास के पाठ्यक्रम में हमारे हजारों वर्षों के गौरवपूर्ण इतिहास को विस्तारपूर्वक बताने के अलावा, गत हजार वर्ष के इतिहास को ‘गुलामी का काल’ या ‘परतंत्रता का काल’ कहने के स्थान पर ‘संघर्ष का काल’ कहते हुए आक्रामकों से संघर्ष करनेवाले महापुरुषों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया जाना चाहिए, न कि आक्रामकों और उनके शासन शासकों के बारे में।

इसके अलावा हमारे इतिहास के पाठ्यक्रम में अपने देश के महापुरुष और ज्ञान के सब क्षेत्रों में उनके योगदान के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। इस दृष्टि से विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में एक अध्याय (chapter) ऐसा होना चाहिए कि जिसमें भारत के पूर्वजों के उस विषय से संबंधित ज्ञान और उसमें उनके योगदान के बारे में बताया गया हो। कुछ विषयों में तो आज ऐसा है। उदाहरण के लिए वास्तुकला के अध्ययन में एक विषय है ‘Ancient Indian – Architecture’, जिसमें प्राचीन भारत की वास्तुकला के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। इसी तरह डॉक्टरी के अध्ययन में (M.B.B.S. और तत्सम) शल्य चिकित्सा इस विषय के अंतर्गत दो हजार वर्ष पहले के सुश्रुत के शल्य चिकित्सा से संबंधित ज्ञान (Plastic Surgery सहित) और उस हेतु उसके द्वारा उपयोग में लाए गए उपकरणों का चित्रोंसहित वर्णन किया गया है। यह बात सभी विषयों में, विशेष रूप से कक्षा १० तक के विषयों में होनी चाहिए क्योंकि वे विषय सबके लिए होते हैं; कक्षा ११ से विज्ञान, कला, वाणिज्य इत्यादि वर्गीकरण और महाविद्यालय में अभियांत्रिकी, चिकित्सा विज्ञान, कृषि विज्ञान, इतिहास, भूगोल इत्यादि आगे का वर्गीकरण भी होता है। (इसका एक लाभ यह भी है कि कक्षा १० तक की शिशु और बाल अवस्था में बतायी और सिखायी हुई बातें जीवनभर याद रहती हैं। )

विद्यालय की बड़ी कक्षाओं में और महाविद्यालयों में संबंधित विषय में (अर्थशास्त्र, विज्ञान इत्यादि) भारत का क्या दृष्टिकोण है और उसका क्या कारण है यह भी बताया जाना चाहिए। इससे छात्र-छात्राओं को धीरे-धीरे भारत की विचारप्रणाली, तत्त्वज्ञान इत्यादि की जानकारी होती जाएगी। इन सब बातों के ‘कारण वे भारत के ‘स्व’ को अच्छी तरह जानना प्रारंभ करेंगे, जिससे उस के मन में भारत के ‘स्व’ के प्रति अभिमान और श्रद्धा का भाव उत्पन्न होगा और वे सही अर्थ में ‘भारतीय’ बनने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। इस कारण वे भारत जानने के साथ भारत को मानेंगे भी। ऐसे ही लोगों के द्वारा भारत उन्नति की सही दिशा में आगे बढ़ सकता है।

छात्र-छात्राओं को उपरोक्त सारी बातें जो शिक्षक (teacher) बताता है वह केवल जानकारी देनेवाला ही बनकर न रह जाए। वह ज्ञान देनेवाला बनना चाहिए। भारत में शिक्षक को गुरु कहा जाता है। ‘गु’ याने अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ याने प्रकाश (ज्ञान)। अतः ‘गुरु’ का अर्थ है ‘अंधकार (अज्ञान) को हटाकर प्रकाश (ज्ञान) देनेवाला’। (गुरु को आचार्य भी कहा जाता है। आचार्य याने अपने आचरण से शिक्षा देनेवाला।) ज्ञान में भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान ये दोनों ही आते हैं। भौतिक ज्ञान मुख्यतः बाह्य जगत से संबंधित है जिसमें अध्ययन के विभिन्न विषय भी आते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान मुख्यतः अंदरूनी जगत से संबंधित है, जिसमें आत्मा और परमात्मा को तथा उनके परस्पर संबंध को समझनेवाली बात भी आती है। छात्र-छात्रा को भारत में शिष्य-शिष्या कहा जाता है, जो गुरु पर श्रद्धा रखते हुए उस से ज्ञान प्राप्त करते हैं। जिनपर श्रद्धा होती है उनसे ही कोई व्यक्ति उनका दिया हुआ संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। (इसीलिए किसी भी व्यक्ति के प्रथम गुरु माता-पिता होते हैं। )

भारत का शिक्षा तंत्र ऐसा होना चाहिए कि, उसमें शिक्षक सही अर्थ में गुरु और आचार्य बनें, ताकि छात्र सही अर्थ में शिष्य बन सकें। इस दृष्टि से उपयुक्त अंतराल में शिक्षकों के प्रशिक्षण / उन्नयन की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि वे विषय से संबंधित नवीनतम जानकारी प्राप्त कर सकें और छात्रों का सर्वांगीण विकास करने में अधिक सक्षम हो सकें।

सर्वांगीण विकास की दृष्टि से हमारी शिक्षा संस्थाओं में अकादमिक विषयों के अलावा ‘नैतिक शिक्षा’ (moral education) या ‘मूल्य शिक्षा’ (value education) यह विषय भी सभी पाठ्यक्रमों में जोड़ा जाना चाहिए। इसके

कारण छात्र-छात्रा सज्जन बनेंगे, गुणवान बनेंगे, परोपकारी बनेंगे और कानूनों का पालन करनेवाले देशभक्त नागरिक बनेंगे। यदि कोई व्यक्ति अनेक बातों की जानकारी रखनेवाला विद्वान हो लेकिन उसमें उपरोक्त बातें न हों, तो वह किसी के लिए भी उपयोगी नहीं होता।

हमारी शिक्षा संस्थाओं में अकादमिक विषयों के अलावा नैतिक या मूल्य शिक्षा के साथ ही खेल, कला-संगीत-साहित्य से संबंधित उपक्रम, व्यक्तिगत अभिरुचि से संबंधित बातों की अभिव्यक्ति और प्रयोग करने हेतु अन्यान्य प्रावधान (योग कक्षा, Hobby Club), राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकार बढ़ाने की दृष्टि से कुछ व्यवस्थाएँ (NCC, NSS) इत्यादि बातें भी होनी चाहिए। पहले इन सब बातों को ‘अतिरिक्त पाठ्यक्रम गतिविधियाँ’ (extra curricular activities) कहा जाता था, जिसमें इन्हें पाठ्यक्रम की तुलना में दोयम मानने का भाव निहित था। लेकिन अब इन बातों को ‘सह पाठ्यक्रम गतिविधियाँ’ (co curricular activities) कहा जाता है, जिनमें इन्हें पाठ्यक्रम जैसा ही महत्त्वपूर्ण मानने का भाव निहित है। यह नाम परिवर्तन एक स्वागतयोग्य कदम है। इसका सुपरिणाम मिले इस दृष्टि से जिस तरह पाठ्यक्रम से संबंधित गतिविधियाँ शिक्षकों द्वारा संचालित होती हैं उसी तरह सह पाठ्यक्रम गतिविधियों के लिए भी शिक्षकों का मार्गदर्शन और प्रोत्साहन मिलना चाहिए। ऐसा सबका अनुभव है। कि, सह पाठ्यक्रम गतिविधियों में संलग्न शिक्षकों से छात्र अधिक खुलकर मन की बात करते हैं और उनमें ऐसे शिक्षकों द्वारा बतायी गई बातों को मानने की प्रवृत्ति होती है। इस कारण इन शिक्षकों का शिक्षक से गुरु / आचार्य बनने का मार्ग कुछ सरल हो जाता है।

छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकार बढ़ाने की दृष्टि से नागरिक सुरक्षा, आपदा प्रबंधन इत्यादि से संबंधित शिविर लगाए जा सकते हैं। शिक्षा संस्था के आसपास की सेवा बस्ती (slum) के लिए कुछ सेवा कार्य (निःशुल्क कोचिंग क्लास जैसे) और पर्यावरण जागरूकता बढ़ाने के लिए वृक्षारोपण, प्लास्टिक मुक्ति अभियान इन जैसे उपक्रम प्रारंभ करके उनमें भाग लेने के लिए छात्र-छात्राओं को प्रेरित किया जाना चाहिए।

शिक्षा किस भाषा में दी जा रही है इसका भी बहुत महत्त्व होता है, क्योंकि भाषा जनसंस्कृति का अभिन्न अंग है। (उदाहरण के लिए – किसी के पराक्रम के बारे में बताने के लिए भारतीय भाषाओं में हनुमान, भीम, अभिमन्यु इत्यादि का उदाहरण दिया जाएगा, जबकि भारत के बाहर की भाषाओं में हर्क्यूलस, रुस्तम
इत्यादि का) इसलिए भारत में शिक्षा का माध्यम कोई भारतीय भाषा (यथासंभव मातृभाषा) होनी चाहिए, परन्तु प्राथमिक शिक्षण अनिवार्य रूप से मातृभाषा में ही होना चाहिए।
शिक्षित लोग केवल नौकरी करनेवाले न बनें इस दृष्टि से हमारी शिक्षा पद्धति में व्यावसायिक शिक्षा, कौशल विकास इत्यादि बातों को भी महत्त्व दिया जाना चाहिए।

हमारे लोग विश्वभर में शिक्षा प्रदान करने वाले बनें (प्राचीन काल में यह होता था) इस बात को ध्यान में रखते हुए अन्यान्य विदेशी भाषाओं के अध्ययन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। योग, भारतीय कला-नृत्य-संगीत, भारतीय चिकित्सा पद्धति, संस्कृत, प्राचीन ग्रंथ इत्यादि के प्रति आकर्षण सारे विश्व में बढ़ रहा है, अतः इन विषयों में निपुण लोगों को आग्रहपूर्वक विदेशी भाषाएँ सिखानी चाहिए। इसी तरह हमारे विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया को आवश्यक सावधानियाँ रखते हुए सरल बनाना चाहिए, ताकि उनकी संख्या बढ़े। (प्राचीन काल में यह भी होता था।) विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कार्य करने की अनुमति दी जा सकती है, परंतु उन्हें कोई विशेष सुविधा न दी जाए और उनपर भारत के सारे नियम-कानून लागू होने चाहिए। इन सारी बातों से विश्व में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय विषयों का और इस कारण भारत का प्रभाव बढ़ेगा, जो प्राचीन काल की तरह ही विश्व कल्याणकारी होगा।

वर्तमान युग ज्ञान का युग है। इस कारण आज नई बातों को खोजना, पुरानी बातों को युगानुकूल बनाना इत्यादि बातों के लिए गहन अध्ययन और अनुसंधान की आवश्यकता है। अतः हमारी शिक्षा पद्धति में R & D (Research and Development) को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों के यदि उद्योगों से निकट के संबंध होंगे तो उनके द्वारा R & D की दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक विषयों की जानकारी उन्हें प्राप्त हो सकती है। इन सारी बातों के कारण हम विश्व-प्रतिस्पर्धा में अधिक सफल होंगे।

जिन पाठ्यक्रमों में Project, Dissertation, Thesis इत्यादि आवश्यक होते हैं वहाँ संबंधित विषयों का चयन करते समय समाज और देश की वर्तमान आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखने की दृष्टि छात्र-छात्राओं को दी जानी चाहिए।
शिक्षा क्षेत्र का राष्ट्र के विकास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतः देश के

बजट में इसके लिए अधिक प्रावधान होना चाहिए। शिक्षा में शिक्षक का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसलिए प्रतिभावान लोग शिक्षक बनने को उच्च वरीयता दें इस दृष्टि से शिक्षकों के वेतनमान और अधिक अच्छे करने होंगे, अन्यथा ऐसे लोगों में शिक्षक बनने के लिए निम्न वरीयता ही रहेगी। शासन द्वारा प्रदत्त आर्थिक प्रावधानों के अलावा समाज का भी शिक्षा तंत्र की आर्थिक व्यवस्था में सहभाग होना चाहिए। इस दृष्टि से सामाजिक सरोकारवाले धनवान तथा उद्योग जगत के लोगों के अलावा शिक्षा संस्था के पूर्व छात्र-छात्राओं का भी सहयोग लिया जा सकता है।

शिक्षा का प्रबंधन और संचालन शिक्षकों और शिक्षाविदों के द्वारा होना चाहिए। शिक्षा संस्थाओं को वित्तीय और अकादमिक स्वायत्तता होनी चाहिए; परन्तु इस के कारण शिक्षा का व्यावसायीकरण न हो तथा उसका देश-तोड़क मानसिकता बनाने में दुरुपयोग न हो सके इसकी सावधानी रखी जानी चाहिए

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