वैचारिक योद्धा पी.परमेश्वरन् “9 फरवरी/पुण्य-तिथि”
बहुत वर्षों तक लोग मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लाठी-काठी और खाकी निक्कर वाले बुद्धि से पैदल लड़कों का ही संगठन है। वहां वैचारिक बहस या गंभीर विमर्श की गुंजाइश नहीं है; पर बौद्धिक मोर्चे पर आकर जिन लोगों ने ऐसे मूढ़मति लोगों को चुनौती दी और उन्हें पीठ दिखाने को मजबूर कर दिया, उनमें श्री पी.परमेश्वरन् का नाम प्रमुख है।
पी.परमेश्वरन् का जन्म 1927 में केरल राज्य में अलप्पुझा जिले के मुलम्मा गांव में हुआ था। उनके पिताजी संस्कृत के विद्वान थे। घर के शैक्षिक वातावरण का प्रभाव उन पर भी पड़ा। हिन्दू दर्शन, संस्कृति और काव्य की ओर उनका झुकाव बचपन से ही था। उन्होंने तिरुअनंतपुरम् से बी.ए. (आॅनर्स) की परीक्षा स्वर्ण पदक लेकर उत्तीर्ण की। वे स्वामी अगमानंद, केरल के गांधी के.केलप्पन मनोहरदेव, श्री गुरुजी, दत्तोपंत ठेंगड़ी और दीनदयालजी के चिंतन से प्रभावित थे। सावरकर सदन में उनकी भेंट वीर सावरकर से भी हुई।
पी.परमेश्वरन् संघ पर लगे पहले प्रतिबंध के विरुद्ध 1949 में जेल गये। वहां से लौटकर 1950 में वे प्रचारक बने और केरल में कई स्थानों पर संघ शाखा का विस्तार किया। मलयालम में छपने वाले ‘केसरी’ साप्ताहिक के भी वे संपादक रहे। 1958 में केरल राज्य के गठन के बाद वे ‘भारतीय जनसंघ’ के प्रदेश संगठन मंत्री बनाए गये। क्रमशः वे जनसंघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। आपातकाल में वे 16 महीने जेल में रहे; पर उसके बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी और दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के निदेशक बने।
उस दौरान केरल में लोग वामपंथी को प्रगतिशील और हिन्दू को पिछड़ा मानते थे। ऐसे माहौल में पी.परमेश्वरन् ने वैचारिक मोर्चा संभाला। उन्होंने प्रचुर साहित्य निर्माण कर उन्हें चुनौती दी। 1983 में हुए विशाल हिन्दू सम्मेलन का ध्येयगीत था ‘सारे हिन्दू एक हैं।’ इससे जातियों के नाम पर लड़ने वाले नेता और संगठन एक मंच पर आने लगे। अतः केरल के वैचारिक मंचों पर हिन्दु, हिन्दुत्व और हिन्दुस्थान बहस के हिस्से बन गये।
इसके बाद उन्होंने केरल में ‘भारतीय विचार केन्द्रम्’ की स्थापना की। गीता और माक्र्स, विवेकानंद और माक्र्स.. जैसे विषयों पर उनके भाषण सुननेे वामपंथी बुद्धिजीवी भी आते थे। उनकी विनम्रता तथा बौद्धिक ज्ञान का वैचारिक विरोधी भी सम्मान करते थे। उनके द्वारा स्थापित ‘गीता स्वाध्याय केन्द्रों’ तथा ‘संयोगी’ कार्यक्रम से लाखों युवा जुड़े। सं से संस्कृत, यो से योग और गी से गीता। उनके प्रयास से मलयालम कलेंडर के अंतिम मास ‘कर्कटक’ में घर-घर रामायण पाठ की प्रथा पुनर्जीवित हुई। वे विवेकानंद केन्द्र, कन्याकुमारी के अध्यक्ष भी रहे। शासन ने उन्हें ‘पद्म श्री’ और फिर ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया; पर राज्यसभा की सदस्यता उन्होंने स्वीकार नहीं की।
पी.परमेश्वरन् के सभी विचारधारा वालों से अच्छे संबंध थे। वे स्वयं तो लिखते ही थे, अन्यों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे। स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती पर उन्होंने विभिन्न विचारधारा के 108 लोगों के लेख एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किये। श्री नारायण गुरु और श्री अरविंद के अलावा अंग्रेजी और मलयालम में उन्होंने लगभग 20 पुस्तकें लिखीं। गंभीर वैचारिक पत्रिकाओं में उनके प्रेरक लेख लगातार छपते रहते थे। विवेकानंद केन्द्र ने इनका संकलन ‘हार्ट बीट्स आॅफ हिन्दू नेशन’ शीर्षक से प्रकाशित किया है।
विद्वान होते हुए भी वे अपने हर भाषण की अच्छी तैयारी करते थे। उनके भाषण उत्तेजित करने की बजाय दिल और दिमाग को हिलाने वाले होते थे। उनका जीवन बहुत अनुशासित था। वे श्री अरविंद और विवेकानंद के समन्वित रूप थे। इसीलिए उन्हें ‘राष्ट्रऋषि’ कहा जाता था। नौ फरवरी, 2020 को 93 वर्ष की सुदीर्घ आयु में उनका निधन हुआ।
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