डोला पालकी आंदोलन के प्रणेता जयानंद भारतीय “9 फरवरी /पुण्य-तिथि”


डोला पालकी आंदोलन के प्रणेता जयानंद भारतीय “9 फरवरी /पुण्य-तिथि”
उत्तराखंड में लम्बे समय तक डोला-पालकी प्रथा प्रचलित रही है। इसके अनुसार दूल्हे को पालकी में ले जाते हैं तथा वापसी पर वधू को डोली में ससुराल लाते हैं। जातीय भेदभाव के कारण यह प्रथा उच्च वर्ग के हिन्दुओं में प्रचलित थी। उनकी देखादेखी पहाड़ के मुसलमानों ने भी इसे अपना लिया। डोली और पालकी को ढोने वाले तथाकथित छोटी जाति के शिल्पकार हिन्दू होते थे; पर विडम्बना यह थी कि वे स्वयं इसका प्रयोग नहीं कर सकते थे।इस कुप्रथा के विरोधी स्वाधीनता सेनानी जयानंद भारतीय का जन्म 17 अक्तूबर, 1881 को पौड़ी गढ़वाल के अरकंडाई गांव के जागरी करने वाले शिल्पकार परिवार में हुआ था। इस कुरीति का लाभ उठाकर ईसाई मिशनरी धर्मान्तरण का जाल फैला रहे थे।

दूसरी ओर आर्य समाज का प्रचार भी हो रहा था। गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में स्वामी शारदानंद से दीक्षा लेकर 1911 में जयानंद भारती आर्य समाज में शामिल हो गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1914 से 1920 तक वे यूरोप में मोरचे पर रहे। वहां से आकर 1920 में आर्य समाज के प्रचारक बन गये। उन दिनों जनेऊ भी केवल उच्च जाति वाले पहनते थे। आर्य समाज ने सब जातियों में जनेऊ संस्कार कराये।

आर्य समाज के जयानंद भारतीय तथा बल्देव सिंह आर्य आदि का मानना था कि डोला-पालकी में बैठकर गांव के बीच से निकलने का हक सबको है। खुले दिमाग के कुछ बुद्धिजीवी भी इसके पक्ष में थे; पर तथाकथित सवर्ण ऐसी डोली और पालकियों को तोड़कर लूट लेते थे। बारातियों को कई दिन तक जंगल में रोककर भूखा-प्यासा रखते थे। इससे तनाव बढ़ रहा था। 16 जनवरी, 1920 को पहली बार रामगढ़ क्षेत्र में खुशीराम आर्य के नेतृत्व में शिल्पकारों ने डोला-पालकी का प्रयोग किया। कुछ विरोध के बावजूद बीचबचाव हो गया। इसके बाद कई लोगों ने साहस किया; पर अधिकांश जगह मारपीट हुई। इधर शिल्पकार भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। एक अनुमान के अनुसार 1920 से 1933 तक 300 बारातों को रोका गया। इस संबंध में कई मुकदमे दायर किये गये। 21 फरवरी, 1936 को प्रयागराज उच्च न्यायालय ने शिल्पकारों के पक्ष में निर्णय दिया। फिर भी जमीनी हालत नहीं सुधर पाई, क्योंकि जनमानस इसके पक्ष में नहीं था।

12 फरवरी, 1940 को पौड़ी के भौराड़ गांव में 56 गांवों के हजारों लोगों ने बारात पर हमलाकर पालकी तथा बारातियों के जनेऊ आदि जला दिये। इसकी सब ओर तीव्र निंदा हुई। जयानंद भारतीय के नेतृत्व में सत्याग्रह समिति का गठन हुआ। उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन भी चल रहा था। कांग्रेस अधिवेशन में यह विषय उठने पर ठक्कर बापा, वियोगी हरि जैसे नेता पहाड़ में आये। उन्होंने सभाओं में शिल्पकारों का पक्ष लिया तथा राष्ट्रीय पत्रों में इस बारे में लिखा। इससे यह विषय सर्वत्र चर्चित हो गया।
उन दिनों कांग्रेस का व्यक्तिगत सत्याग्रह हो रहा था; पर गांधीजी ने इस भेदभाव की बात सुनकर 25 जनवरी, 1941 को पहाड़ में इसे स्थगित कर दिया। इससे कांग्रेस के नेता बेचैन हो गये। चूंकि वे सत्याग्रह की जोरशोर से तैयारी कर रहे थे। सभी नेता भी उच्च जाति के थे। उन्होंने डोला-पालकी के हक में प्रस्ताव पारित किया। इस पर 140 नेताओं ने हस्ताक्षर कर गांधी जी के पास भेजा। अतः गांधी जी ने सत्याग्रह की अनुमति दे दी।

नौ फरवरी, 1952 को जयानंद भारतीय का क्षयरोग से अपने गांव में ही देहांत हुआ। आज तो यह प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है। पहाड़ के लोग बड़ी संख्या में मैदानी क्षेत्रों में आ गये हैं। सड़कों के कारण बारातें भी कार और बसों में आती-जाती हैं; पर उत्तराखंड के इतिहास में डोला-पालकी आंदोलन तथा इसके प्रणेता जयानंद भारती को सदा याद किया जाता है।

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