Welcome to Vishwa Samvad Kendra, Chittor Blog जन्म दिवस लक्ष्मीबाई केलकर जयंती “जुलाई 1905”
जन्म दिवस हर दिन पावन

लक्ष्मीबाई केलकर जयंती “जुलाई 1905”

(आषाढ़ शुक्ल पक्ष, दशमी,1962, विक्रम संवत)
परिचय

लक्ष्मीबाई केलकर जयंती “जुलाई 1905”

(आषाढ़ शुक्ल पक्ष, दशमी,1962, विक्रम संवत)

परिचय

लक्ष्मीबाई केलकर भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारकों में से एक थीं। उन्होंने महिलाओं के उत्थान और राष्ट्र के प्रति गौरव बोध एवं दायित्व निर्माण के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नामक संगठन की स्थापना की। लक्ष्मी बाई केलकर का मूल नाम कमल था, विवाहोपरांत उनको लक्ष्मी बाई नाम मिला किन्तु लोग आदरपूर्वक उन्हे “मौसी जी” कहते थे। उनका जन्म बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलन के दिनों में जुलाई, 1905 को नागपुर में हुआ था। उस समय कौन जानता था कि साधारण सी दिखने वाली यह लड़की भविष्य में नारी जागरण का इतना बड़ा संगठन खड़ा करेगी, जो विश्व में हिंदू गौरव को बढ़ाएगा

मुख्य बिन्दु
“महिला परिवार और राष्ट्र के लिए प्रेरक शक्ति है। जब तक यह बल नहीं जागता, समाज प्रगति नहीं कर सकता है”
-लक्ष्मीबाई केलकर, राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका
यद्यपि राष्ट्र सेविका समिति को संघ की “महिला इकाई ” के रूप में माना जाता है, किन्तु समिति हमेशा संघ की विचारधारा से प्रेरित महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं पर केन्द्रित एक स्वतंत्र समानांतर और संगठन रही है।
लक्ष्मीबाई केलकर ने इस संगठन की स्थापना अश्विन शुक्ल पक्ष, दशमी (विजयादशमी) 1993 विक्रम संवत तदनुसार 25 अक्टूबर, 1936 ई को की थी ।
यह संगठन संघ संस्थापक पूज्य डॉ के.बी. हेगड़ेवार की सलाह पर श्रीमती केलकर द्वारा एक स्वतंत्र महिला संगठन के रूप में शुरू किया गया।
राष्ट्र सेविका समिति, भारतीय संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखने के लिए काम करने वाला विश्व का सबसे बड़ा हिंदू महिला संगठन है।
राष्ट्र सेविका समिति देश भर में स्थित 5,216 केंद्रों के माध्यम से संचालित होती है। इसकी सक्रिय सदस्यता दस लाख के आसपास तक है।
समिति अपने विभिन्न केन्द्रों पर सक्रिय शाखाओं का आयोजन करती है, जहाँ छात्राओं को योग, गायन, नृत्य, सांस्कृतिक मूल्य सिखाए जाते हैं और सैन्य प्रशिक्षण भी दिया जाता है।
राष्ट्र सेविका समिति गरीबों और वंचितों के लिए आत्मनिर्भर साधन प्रदान करने के लिए 475 सेवा परियोजनाएं भी चलाती है।
राष्ट्र सेविका समिति समाज में सकारात्मक सामाजिक सुधार के लिए हिंदू महिलाओं की नेता और अभिकर्ता के रूप में भूमिका विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करती है।
जीवनी

लक्ष्मीबाई का जन्म हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष, दशमी ,1962, विक्रम संवत तदनुसार ग्रेगेरीयन कलेंडर के जुलाई 1905 ईस्वी में महाराष्ट्र के नागपुर जिले के महल नामक स्थान पर हुआ था। बचपन में उनका नाम कमल रखा गया था। उनके पिता भास्कर राव दाते, एक सरकारी नौकर और माता यशोदाबाई एक गृहिणी थीं ।उन दिनों ब्रिटिश शासन में, किसी सरकारी कर्मचारी के लिए लोकमान्य तिलक द्वारा संपादित’केसरी’ जैसे साहित्य की खरीद और अध्ययन को देशद्रोही कार्य के रूप में देखा जाता था। लेकिन कमल की माँ तिलक साहित्य खरीदती और सभी महिलाओं को संयुक्त रूप से पढ़ने के लिए बुलाती थी। इस प्रकार लक्ष्मीबाई का मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम, क्षमता, निडरता की भावना का विकास उनके माता-पिता से हुआ। एक बच्ची के रूप में, हिंदू किंवदंतियों के गीतों, अनुष्ठानों और कहानियों ने उनके युवा मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ी। वह मंदिर जाना पसंद करती थी । उन्हे ‘मिशन स्कूल’ में भर्ती कराया गया , क्योंकि उसके घर के पास उपलब्ध वही एकमात्र बालिका विद्यालय था। लेकिन वह इस बात से परेशान हो जाती थी कि प्रार्थना की दिनचर्या में हिंदू देवी-देवता शामिल नहीं थे और यद्यपि उन्होने इससे सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन अंततः अपनी प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होने पुनः हिन्दू मान्यताओं के अनुसार अपनी पूजा अर्चना आरंभ कर दी । वह छोटी उम्र में भी बहादुर और स्पष्टवादी थी और लड़कों के खेल के साथ-साथ अपनी गुड़िया के साथ भी खेल खेलती थी। उन्होंने छोटे-छोटे विवादों से दूर रहकर खेलों का नेतृत्व किया और अपने दोस्तों को बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्ष रूप से खेलने का निर्देश दिया। अपनी मां को हर दिन दूसरी महिलाओं के साथ केसरी पढ़ने की बात सुनकर कमल में धीरे-धीरे देशभक्ति और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा।
प्रारंभिक वर्षों में गाय संरक्षण अभियान और प्लेग नियंत्रण मे सहयोग

जब महाराष्ट्र में गायों को वध से बचाने का अभियान चल रहा था, तो युवा कमल ने मंदिर के पुजारी और दाई ’(नानी) के साथ इस पवित्र धर्मयुद्ध में भाग लिया। इस अभियान ने उन्हें भाषण की शक्ति, विनम्रता का मूल्य और अपमान और किसी पवित्र कार्य को करते समय नकारात्मकता को सहन करने और संघर्ष करने की क्षमता सिखाई। महाराष्ट्र मे प्लेग महामारी के प्रकोप के समय में उन्होने बिना किसी भेदभाव रोगग्रस्त और पीड़ितों की सेवा करने में अपने माता-पिता और दाई की सहायता की। उनके पिता बहुत ही समाजसेवी प्रकृति के व्यक्ति थे और उन्होंने प्लेग पीड़ितों का अंतिम संस्कार भी किया था, जिन्हें दूसरे लोग छूने तक से मना कर दिया करते थे । इन सभी अनुभवों ने उन्हे धीरज और धैर्य के मूल्यों को सिखाया।

वर्धा के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता पुरुषोत्तम राव से उनका विवाह हुआ । परंपरा के अनुसार, उनका नाम बदलकर लक्ष्मी कर दिया गया। चूंकि उनका परिवार एक विशाल खेतिहर और संपत्ति वाला संयुक्त परिवार था, इसलिए कई बैरिस्टर और सामाजिक सुधारक आते जाते रहते थे और समय समय पर देशभक्ति की बातों की चर्चा होती रहती थी , इन सब चीजों ने उनमें देशभक्ति की लौ जगाए रखी। उन्हें महिला समकक्षों द्वारा संपर्क सभाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। वह असाधारण नेतृत्व गुणों से संपन्न महिला थीं इसलिए उन्होंने अपने समय को तुच्छ कार्यों में बर्बाद करने के बजाय इन सभाओं में रचनात्मक और सकारात्मक कार्यों के लिए सलाह देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे अन्य महिलाओं में भी एक बदलाव लाया और वे भी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को पढ़ने और उन पर चर्चा करने लगीं।

वर्धा- गतिविधि का केंद्र
लोकमान्य तिलक के दुखद निधन के बाद, महात्मा गांधी ने साबरमती को छोड़ दिया और वर्धा को अपने आश्रम के रूप में चुना। वर्धा के सेवाग्राम में देश भर के स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। इन सब घटनाओं से प्रेरित होकर लक्ष्मीबाई की देशभक्ति की भावनाएँ और प्रबल हो गई और उन्होंने अपनी देवरानियों और जेठानियों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इस पवित्र काम के लिए अपने आभूषण भी दान कर दिया । दुर्भाग्य से उसके पति को तपेदिक का संक्रमण हो गया जो कि उन दिनों एक भयानक और असाध्य बीमारी हुआ करती थी और सभी प्रयासों और प्रार्थनाओं के बावजूद वह बच नहीं सके और वह मात्र सत्ताईस वर्ष की उम्र में ही विधवा हो गई । उनकी बड़ी बेटी की भी बीमारी से मौत हो गई। अपने दुःख को अलग करते हुए, उन्होंने घर का प्रबंधन संभाला और वित्तीय मामलों को नियंत्रण में किया।

सक्रिय और औपचारिक सामाजिक-राजनीतिक जीवन का आरंभ
लक्ष्मीबाई ने अनुभव किया कि वर्धा में उनकी बेटी की पढ़ाई के लिए कोई लड़कियों का स्कूल नहीं था, इसलिए उन्होंने “कन्या विद्यालय” की नींव रखने की दिशा में पहला कदम उठाया और इस प्रकार वर्धा में महिलाओं की साक्षरता का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन्होने कर्तव्यपरायण और समर्पित शिक्षकों की खोज की और उन्हें अपने घर में परिवार के सदस्यों की तरह व्यवहार करते हुए आवास प्रदान किया। उन्होंने लड़कियों को साइकिल चलाने और तैराकी सीखने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने सेवाग्राम मे , प्रभात फेरियों, शाम की प्रार्थना सभाओं और प्रश्न उत्तर सत्रों में सूत कताई कार्यक्रमों में भी भाग लिया।

इन दिनों के बीच गांधीजी ने महिलाओं से अपनी अव्यक्त आंतरिक शक्तियों को दिशा प्रदान करने के लिए सीता जैसे बनने का एक आह्वान किया, जिससे पुरुष राम बनने के लिए प्रेरित हो सकें ।गांधी जी के शब्दों से प्रेरित होकर उन्होंने रामायण का एक गहन अध्ययन किया। उन्होंने अनुभव किया कि रामायण काल के दिनों में हुए सीता के अपहरण से लेकर आज तक महिलाओं का दमन करने की प्रवृत्ति जारी है। उन्होने अपने क्षेत्र में नारंगी विक्रेता महिलाओं की दुर्दशा पर ध्यान दिया, जिनका अभिकर्ताओं द्वारा शोषण किया जाता था। वह इस बात से चिंतित रहती थी कि उत्पीड़ित महिलाओं की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति कैसे बढ़ाई जाए। इस बीच उनके बेटे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में सम्मिलित हो गए जहाँ उन्हें शारीरिक और मानसिक अनुशासन, युद्ध कला आदि सिखाई गईं और उनमें परिवर्तन और अनुशासन को देखते हुए, लक्ष्मीबाई ने निर्णय किया कि महिलाओं के लिए भी एक समान संस्था की स्थापना ही उनकी समस्याओं का समाधान है। उन्होंने संघ संस्थापक पूज्य डॉ हेडगेवार जी से मिलने का निर्णय किया। डॉ. हेडगेवार उनकी शांत शक्ति और दर्शन से बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने स्वामी विवेकानंद जैसे महान नेताओं के उदाहरणों के साथ, महिलाओं को सशक्त बनाने की आवश्यकता के बारे में उन्हें समझाने का प्रयास किया । डॉ. हेडगेवार ने उनकी निर्भीकता , संकल्प और महानता का अनुभव किया और उनसे पूछा कि क्या वह महिलाओं का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हैं? उनकी स्वीकृति के बाद हेड्गेवार जी उन्हे महिलाओं के लिए संगठन की स्थापना की स्वीकृति प्रदान कर दी । उन्होंने इसका नाम राष्ट्र सेविका समिति रखा। उन्होने कहा कि इस संगठन की विचारधारा पुरुषों के संघ के समान किन्तु समानांतर होगी और यह स्वायत्त और स्वतंत्र होगा।

आत्मविश्वास का बीजारोपण और मंच प्रदान करना
लक्ष्मीबाई ने अनुभव किया कि महिलाओं की उन्नति की दिशा में पहला कदम भारत के गौरवशाली अतीत और राष्ट्रवादी मूल्यों के लिए गर्व के बारे में महिलाओं को प्रेरित करना होगा क्योंकि महिलाओं ने विदेशी बंधन के कारण आत्मविश्वास की अत्यंत कमी हो गयी थी और उन्हे ऐसा लगता है कि उनके मूल्य और आदर्श पश्चिमी विचारधाराओं से निम्न स्तर के हैं । वह अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ घर-घर गई और उनसे खुद को राष्ट्रीय सेवा में शामिल करने का आग्रह किया। विजयादशमी के दिन, राष्ट्र सेविका समिति का औपचारिक उद्घाटन किया गया था। उसके उत्साह से प्रेरित होकर, महिलाओं ने साहस और आत्मविश्वास के साथ अपना नामांकन करना शुरू किया। सभी सेविकाओं ने उन्हें वंदनीया मौसीजी ’के रूप में संदर्भित करना शुरू कर दिया और वह लाखों सेविकाओं के लिए एक आदर्श, विश्वासपात्र और मार्गदर्शक बन गईं। उन्होंने शारीरिक और बाहरी अभ्यास के साथ खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। जल्द ही उसने विशाल रैलियों को संबोधित करना शुरू कर दिया और घर पर पूरी तरह से अभ्यास करके अपनी प्रारंभिक घबराहट को खत्म कर दिया। उन्होंने अलग-अलग जगहों पर नए केंद्र या शाखाएँ खोली और नए सदस्यों को संगठन में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करने हेतु शिविर लगाए।

कर्तव्य का गहन भाव
वह परिवार और सामाजिक मूल्यों के संतुलन की दृष्टि से एक अद्वितीय महिला थीं। कई बार अपने सामाजिक कार्यों को जारी रखते हुए अपने बच्चों की बीमारी के कारण घर पर उनकी उपस्थिति की अपरिहार्य आवश्यकता होती थी। उनके पास घर और सामाजिक जीवन को प्रभावित किए बिना उनका कुशल प्रबंधन करने की असाधारण प्रतिभा थी । वह सबसे पहले महिलाओं को प्रेरित करती थीं और प्रशिक्षण शिविर लगाती थीं। एक बार शिविर सफलतापूर्वक स्थापित हो जाने के बाद, वह दूसरे चरण के लिए आधार तैयार करती थी जिसमें बालिका विद्यालय और लघु उद्योग स्थापित करने के लिए प्रस्ताव होता था। दुर्भाग्य से जब भारत का बंटवारा हुआ और तब उन्हें कई गंभीर और संवेदनशील मामलों से अपना ध्यान हटाना पड़ा। हिंदुओं को नैतिक, आध्यात्मिक और भौतिक समर्थन देने के लिए उसने बहादुरी से सिंध तक की यात्रा की। कराची में उन्होंने पहली बार सांप्रदायिक घृणा और हिंसा को देखा। उन्होंने वहाँ की सेविकाओं को एकजुट और शांत होने का आह्वान किया । विभाजन के बाद पाकिस्तान से अनेक परिवार भारत आये। मौसी जी द्वारा उनके खाने रहने का प्रबंध मुंबई के परिवारों में पूरी गोपनीयता रखते हुए किया गया।

अभिप्रेरित आत्मिक उत्साह
ऐसा कहा जाता है कि इस अवधि के दौरान उन्हें एक सपना आया जिसमें एक पवित्र ऋषि ने उन्हें रामायण देकर शांति और सद्भाव के लिए काम करने का आग्रह किया। वह एक आध्यात्मिक चेतना की भावना के साथ जागृत हो गई और उन्होंने रामायण के प्रवचनों के अनुरूप समिति को एक नई दिशा देने का निर्णय किया। उनके भावुक और हार्दिक प्रवचनों को सुनकर लोग उनके महान प्रशंसक बन गए। उन्होंने इस उद्देश्य से कई राज्यों की यात्रा की। वह एक ओजस्वी वक्ता थी और दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देती थी। उन्होंने भगवान राम के राज्याभिषेक तक के प्रसंग सुनाती थी क्योंकि वह राम के गुणों को एक सक्षम प्रशासक और शासक के रूप में महत्व देना चाहती थी, जिनके कर्तव्य और बलिदान के आदर्शों का हमारे दैनिक जीवन में अनुकरण किया जा सकता है। उन्होंने सीता का अनुकरण करने के लिए महिलाओं को प्रेरित किया और साहस, शक्ति, पवित्रता और निर्भयता के साथ परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराया । उनकी पुस्तकों और प्रवचनों ने लाखों लोगों को दिशा और जीयव्न जीने का उद्देश्य प्रदान किया।
बाद के वर्षों के कार्य

मौसीजी ने विभिन्न स्वास्थ्य चिकित्सकों और डॉक्टरों से परामर्श करके महिलाओं की आवश्यकताओं के अनुरूप स्वास्थ्य कार्यक्रम को तैयार किया जिसमें योगासन, सूर्य नमस्कार शामिल थे। प्रार्थना सभाओं के लिए भारतीय इतिहास कि महान महिलाओं की प्रेरक कहानियों को संकलित किया गया । इस उद्देश्य के लिए उन्होंने महिलाओं के शारीरिक और मानसिक विकास के विशेषज्ञ मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के लिए एक संगठन “स्त्रीजीवन विकास परिषद” का गठन किया और सेविकाओं को संबोधित करने के लिए कई प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों और डॉक्टरों को आमंत्रित किया। उन्होंने मराठी में एक पत्रिका ‘सेविका’ का प्रकाशन शुरू किया जो अब ‘राष्ट्र सेविका’ के रूप में कई भाषाओं में प्रकाशित होती है। उन्होंने भारत की गौरवशाली संस्कृति के आधार पर महिलाओं की शिक्षा को पुनर्गठित करने के लिए महिलाओं की प्राकृतिक प्रतिभा और भारतीय श्रीविद्या निकेतन को विकसित करने के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों और अल्पकालिक पाठ्यक्रमों के साथ गृहिणी विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने देवी शक्ति की आराधना का सिलसिला शुरू किया जिसमें आठ भुजाओं वाली कमल, भगवद गीता, भगवा ध्वज, अग्नि कुंड, घंटी, तलवार और मोतियों के साथ क्रमशः नारी शक्ति का प्रतिनिधित्व किया गया और मूर्तियों को विभिन्न कंदराओं में स्थापित किया गया। उन्होंने महिलाओं की संगीत और भक्ति प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के लिए भजन मंडलियों का गठन किया और उन्हें रानी लक्ष्मीबाई और जीजामाता जैसी महान महिलाओं की कविताओं के रूप में रचना करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने शिवाजी के संघर्ष, स्वामी विवेकानंद के स्पष्ट आह्वान जैसे प्रेरणादायक विषयों पर प्रदर्शनियाँ लगाई और कलाकारों को अपने चित्रों के माध्यम से सामाजिक पुनर्जागरण और जनता के उत्थान में योगदान देने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने महान महिला नेताओं की शताब्दी मनाई और हर बैठक में वंदे मातरम का पाठ कर मातृभूमि का सम्मान करने की परंपरा शुरू की। उन्होंने नागपुर में देवी अहिल्या मंदिर, वर्धा में अष्टभुजा मंदिर और कई अन्य मंदिरों का निर्माण किया।

विशिष्टताएं
अपनी व्यापक और विविध दायित्वों के बावजूद मौसीजी स्वच्छता की प्रतिमूर्ति थीं और उन्होंने कभी अपने घर की उपेक्षा नहीं की। वह धर्मनिष्ठ थी और हमेशा पूजा के दौरान फूलों की सजावट और सौंदर्य का ध्यान रखती थी। वह तीर्थयात्राओं पर गईं और समय के मूल्य पर बहुत महत्व दिया क्योंकि उनके पास करने के लिए कई कार्य थे। उसने कभी भी लोगों को अपने आसन पर बैठने की अनुमति नहीं दी और अपनी सारी प्रशंसा समिति को समर्पित कर देती थी और इस प्रकार उन्होंने चाटुकारिता को हतोत्साहित किया। उसके पास विलक्षण स्मरण शक्ति थी, उन्हें प्रत्येक व्यक्ति के बारे में स्पष्ट याद रहता था, भले ही वह एक बार ही क्यों न मिला हो। उनकी प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्व और देखभाल और चिंता करने की उनकी क्षमता ने सभी सेविकाओं को प्रेरित किया। वह उन सभी के लिए एक माँ की तरह थीं और लोग उन्हे माँ के रूप मे पाकर अपने को उनके बच्चे होने मे स्वयं को भाग्यशाली समझते थे।

बीमारी और मृत्यु
जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके द्वारा ग्रामीण और वनवासी पुनर्वास जैसी कई अन्य गतिविधियों को अपने कार्यों में सम्मिलित करने की योजना बनाई गई। उन्होंने अगस्त 1978 तक लगातार सेविकाओं को प्रेरित किया जब उन्हे दिल का दौरा पड़ा और उन्हे आईसीयू में ले जाया गया। जैसे ही उनके स्वास्थ्य मे सुधार होना शुरू हुआ और नागपुर अस्पताल में भारत के सभी राज्यों से उनके हजारों अनुयायियों का तांता लग गया ।कई राज्यों से आई सेविकाओं की भाषा को समझने में असमर्थ होने के बावजूद, उनके बीच आत्मीय-प्रेम बिना शब्दों के व्यक्त होने के लिए पर्याप्त था। इसी बीच शीघ्र ही एक और हृदयाघात पड़ने से अंततः कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण पक्ष द्वादशी २०३५ विक्रम संवत (27 नवंबर 1978) को उनका देहावसान हो गया। अंबाझरी घाट के रास्ते में स्थित श्री शक्ति पीठ मे उनके पार्थिव शरीर थोड़ी देर के लिए में रखा गया था, जिसे अब उनके स्मारक में बदल दिया गया है।

निष्कर्ष
वंदनीया मौसीजी की जीवन कहानी एक साहसी महिला की प्रेरणादायक गाथा है, जिन्होने बड़े नैतिक साहस और मानसिक दृढ़ता के साथ सभी बाधाओं के विरुद्ध संघर्ष और अंत में विजयी हुई। पुरुष प्रधान समाज में उनकी दूरदर्शिता, साहस और आत्मविश्वास के परिणामस्वरूप महिलाओं के पुनर्वास और उत्थान के लिए एक शक्तिशाली संगठन की स्थापना हुई, जिसने पारंपरिक भारतीय महिलाओं के हृदय में देशभक्ति की भावनाओं और सुप्त नारी शक्ति को जागृत किया। वह “​​वसुधेव कुटुम्बकम” अर्थात सम्पूर्ण संसार एक परिवार है’ की सनातन हिंदू विचारधारा के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहीं। उन्होंने मातृभूमि की सेवा और देखभाल के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि महिलाएं समाज के सभी सदस्यों की सेवा करने के लिए मातृत्व वृत्ति का पोषण करती हैं। उनके अनुसार, कर्तव्य, प्रेम और बलिदान की भावना के साथ सेवा एक महान राष्ट्र की सच्ची पहचान होती है। उन्होंने प्रत्येक महिला के दिलों में प्राचीन हिंदू संस्कृति की महिमा पर गर्व करने की प्रवृत्ति विकसित करने का प्रयत्न किया। उनका व्यक्तित्व इतना उदात्त था कि आने वाली पीढ़ियों और विशेष रूप से सभी भारतीय महिलाओं द्वारा उनका सदैव सम्मान किया जाएगा।

संदर्भ ग्रंथ
Bacchetta, Paola(2004) Gender in the Hindu Nation: RSS Women as Ideologues, Women Unlimited, New Delhi
B. S. Chandrababu, L. Thilagavathi (2009) Woman: Her History And Her Struggle For Emancipation, Bharathi Pustakalayam, Chennai
Sarkar, Tanika (1995). “Heroic women, mother goddesses: Family and organization in Hindutva politics”. In Tanika Sarkar; Urvashi Butalia (eds.). Women and the Hindu Right: A Collection of Essays, Kali for Women, New Delhi
संबन्धित लेख
http://rashtrasevikasamiti.org/pages/Lakshmitai.aspx

संस्थापिका एवं आद्य प्रमुख संचालिका वं.मौसीजी
एक सशक्त विचार “मातृशक्ति के राष्ट्र कार्य के लिये प्रेरित करना।”
पराधीन राष्ट्र की हज़ारों महिलाओं में राष्ट्रीयता की जोत जगाकर ,अलौलिक व्यक्तित्व की धनी ,श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर जी ने वर्धा ( महाराष्ट्र ) में 1936 की विजयदशमी पर विश्वव्यापी नारी संगठन “ राष्ट्र सेविका समिति “ की स्थापना की ।समिति की संस्थापिका ,मातृव्त मार्गदर्शन और उच्च ध्येय के कारण वं०मौसी जी के रूप में संबोधित की जाने लगी ।

व्यक्तिगत जीवन
आषाढ़ शुक्ल दशमी 5 जुलाई 1905 में नागपुर के दाते परिवार में हुआ था । दाते परिवार आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं था , किंतु वैचारिक एवम् बौद्धिकता में परिपूर्ण था ।बचपन में मौसी जी का नाम ‘कमल’था ।
छोटी कमल ने अपनी ताई जी से सेवा सुश्रुषा , पिता जी से तन मन धन से सामाजिक कार्य व माता जी से निर्भयता , राष्ट्र प्रेम के गुण विरासत में लिये थे । उन दिनों लोकमान्य तिलक जी के समाचार पत्र “”केसरी”” सरकारी मुलाजिमों के लिये प्रतिबंधित होता था ।इसलिये कमल की माता जी अपने नाम से “”केसरी”” समाचार पत्र ख़रीदती थीं और पास पड़ोस की महिलाओं को एकत्र कर के इस समाचार का वाचन करती थीं । कमल यह सब आत्मसात कर रही थीं ।वह अपनी ताई चाची के साथ गौ रक्षा हेतु भिड़ा तथा कीर्तनों में भी जाती थीं तथा जाने अनजाने विभिन्न संस्कार गृहण कर रहीं थीं । इसका प्रभाव उनकी बाल्यावस्था में ही नज़र आने लगा था ।उन दिनों की प्रथा के अनुसार “कमल” के चौथी कक्षा तक पहुँचते ही विवाह के प्रयास शुरु हो गये थे । कमल बचपन से ही अपने विचारों के बारे में सचेत थीं । आत्मविश्वास से ओत प्रोत थीं तथा वाचन, मनन और श्रवण से परिपक्व हो चुकी थीं । अन्याय कारक घटनाओं से उन्हें बचपन से ही चिढ़ थी ।
विवाह के पश्चात वह “कमल” से लक्ष्मी बनीं । उनके पति ,पुरुषोत्तम राव केलकर वर्धा के प्रख्यात वक़ील थे । विवाह के पश्चात लगभग 14 वर्ष की आयु में वह दो बच्चों की माँ बन गई थीं । उन्हें वैवाहिक जीवन का सुख केवल 10-12 वर्ष ही मिला।अल्पायु में ही पुरुषोत्तम राव जी का स्वर्गवास हो गया और 8 संतानों की गृहस्थी की ज़िम्मेदारी उन्हें अकेले ही उठाने पढ़ी ।

विवाहोत्तर जीवन :
अपने पति के जीवन काल में ही लक्ष्मी अपनी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी निभाते हुए , स्वतंत्रता आन्दोलन संबंधी कार्यक्रमों , प्रभात फेरियों इत्यादि में सक्रिय थीं ।पति के निधन के पश्चात भी उनके यह कार्यक्रम चलते रहे , यद्यपि उस समय की सामाजिक व्यवस्था में यह व्यवहार ,स्थापित मान्यताओं के एकदम विपरीत था । वह विधा के गांधी आश्रम में प्रार्थना के लिये उपस्थित रहतीं थीं । गांधी का यह कथन कि “सीता के जीवन से ही राम की निर्मिता होती है “ उनका आद्रश था , उनके अनुसार महिलाओं को अपने सामने सदैव सीता जी का आदर्श रखना चाहिये । श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर जी ने सीता में स्त्री की वास्तविक भूमिका खोजने के लिये रामायण का अध्ययन शुरु किया ।

धीरे धीरे जीवन पद्धति में परिवर्तन हो रहा था । स्त्री की ओर देखने का दृष्टिकोण बदलने लगा था । स्त्री को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में माना जाने लगा था । स्त्री को निर्भयता के साथ डटकर खड़ा होना आवश्यक है ।इसकी आवश्यकता वह स्वंय भी अनुभव कर रही थी ।

महिलाओं को आत्मरक्षा में सक्षम कैसे बनाया जाये ,इस बात को लेकर उन के मन में दिन रात मंथन चल रहा था ।

अपने पुत्रों के माध्यम से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के बारे में जानकर महिलाओं के लिये भी इस प्रकार के संगठन की आवश्यकता महसूस होने लगी ।उनके मन में डा० हेडगेवार जी से भेंट करने की इच्छा जाग्रत हो गई ।संयोगवश यह अवसर उन्हें अपने पुत्रों के प्रयास से शीघ्र प्राप्त हो गया ।भेंट के दौरान वं. मौसी जी ने महिलायों के लिये भी राष्ट्रीय दृष्टि से संगठित होने की आवश्यकता पर बल दिया ,तथा महिलायों के लिये व्यक्तिगत व सामाजिक सुरक्षा को भी आवश्यक बताया । डा० हेडगेवार जी ने भी मौसी जी के विचारों और दृढ़ निश्चय को देखकर उन्हें इस कार्य के लिये प्रोत्साहित किया ।

स्वयं सिद्धता :
स्वयं को निरंतर संगठन के ढाँचे में ढालने का उनका प्रयास निरंतर जारी था। प्रारंभ में उन्हे भाषण देने का अभ्यास नहीं था। वक्तृत्वशैली भी नहीं थी। लेकिन समाज जागरण के हेतु से समाज को मार्गदर्शन करने की आंतरिक, अत्यंतिक इच्छा थी, जिससे आगे का मार्ग सुगम हुआ। विषय का अध्ययन करना, उसमें से महत्त्वपूर्ण मुद्दे निकालना और उन्हें प्रभावी भाषा में जनता के सामने प्रस्तुत करना – यह बातें अभ्यासपूर्वक आत्मसात की और आत्मविश्वासपूर्वक अपने विचार व्यक्त करनेवाली उत्कृष्ट वक्ता बन गई। मधुर आवाज, स्पष्ट उच्चारण, भावस्पर्शी शब्दों का चयन इन सबका मनोहारी संगम होने के कारण उनका वक्तृत्व श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था।
उन्हें समिति की शाखा-शाखाओं में जनसंपर्क हेतु जाना पडता था, इसलिए मौसीजीने साइकिल चलाना सीख लिया, तैरना भी उन्हें आता था। उनकी बेटी वत्सला की पढने में रुचि देखकर घरपर शिक्षक बुलाकर उसकी पढाईका प्रबंध किया। वर्धा में विद्यालय शुरु करने के लिए अपनी देवरानी को प्रोत्साहित किया और वहाँ पढाने के लिए आयी कालिंदीताई, वेणुताई जैसी शिक्षिकाओं का रहने का प्रबंध अपने स्वयं के घर में किया, जिन शिक्षिकाओं ने उन्हें समिति का कार्य में भी सहयोग दिया।

गहरा चिंतन :
वं. मौसीजीने संगठन की चौखट स्वयं तैयार की थी। जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के विचारों से ध्येय धोरण के रंग भरे थे। स्वसंरक्ष हेतु समिती में दी जानेवाली शारीरिक शिक्षा कहीं उसकी शारीरिक रचना या स्वास्थ्य में बाध तो नही बनेगी इस बातपर भी वह सोचती थी। १९५३ में उन्होंने स्त्रीजीवन विकास परिषद का आयोजन करके डॉक्टरोंको एकत्रित किया और महिलाओं के सौष्ठव के बारे में परिचर्चा आयोजित की। योगासन का महत्व जानकर उन्होंने स्वयं योगासनों की शिक्षा ली। योगमूर्ति जनार्दन स्वामीजी को अनेक स्थानोंपर आमंत्रित करके सेविकाओं को योगासनों का शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण दिया। समिती के शिक्षा वर्गो में भी योगासन का समावेश किया गया।
सेविका कैसी हो उनके सामने इसकी स्पष्ट रूपरेखा थी कि वह संतुलित व्यक्तित्ववाली हो तभी वह समाज के लिए पोषक और प्रेरक सिद्ध होगी। अतः उन्होंने देवी अष्टभुजा की प्रतिमाआराध्यदेवता के रूप में सेविकाओं के सामने रखी। देवी के आठ हाथों में धारण किये आयुधों का वह वर्णन करके बताती थी जिसमें से उनकी अलौकिक प्रतिभा तथा प्रगल्भ और गहरे चिंतन की ज्योति झलकती थी।

रामभक्ति :
मौसीजी राम की निस्सीम भक्त थी। उन्होंने रामायण पर उपलब्ध अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और उसमें का राष्ट्रीय दृष्टीकोण अपने १३ दिनों के रामायण के प्रवचन के माध्यम से जनता के सामने लाकर स्पष्ट किया। उन्होंने लगभग १०८ प्रवचन किये और लोगों को समझाया राम को केवल भगवान समझकर उसकी पूजा मत करो, वह एक राष्ट्रपुरुष है, उसका अनुकरण करो। इन प्रवचनों से प्राप्त, धनराशि का विनियोग उन्होंने समिती के कार्यालय निर्माण करने के लिए किया। आज उनके वक्तृत्व की अमोल निधी ‘पथदर्शिर्नी श्रीराम कथा’ के रूप में हमारे पास है।

वं. मौसीजी की स्मरण शक्ति अद्भुत तेज थी। एक बार परिचय होने के बाद वह उस व्यक्ति को नाम सहित हमेशा याद रखती थी। जीवन के अंतिम चरण में जब वह चिकीत्सालय में भर्ती थी, तो सेविकाओं से भजन गीत गाने को कहती थी और बीच में अगर गानेवाली भूल गयी तो तुरंत आगे के शब्द बताती थी।

व्यवस्थित सरल जीवन, कलात्मक, सांस्कृतिक दृष्टि :
वं. मौसीजी का रहन सहन का ढंग अत्यंत सीधासाधारण था। वह हमेशा स्वच्छ और सफेद सूती साडी ही पहनती थी। अपने कपडे स्वयं धोने का उनका परिपाठ था। उनका हर काम कलात्मक रहता था। समय मिलते ही सिलाई कडाई चालू रहती थी। भगवान के सामने रंगोली सजाना, पूजा करना उसमें भी एक विशेषता थी। हर उत्सव में चाहे वह शाखा में हो या घर में, सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रदर्शन का उनका आग्रह रहता था। हर परिवार में एक राष्ट्रीय कोना हो, जहाँ परिवार के सदस्य मिलकर समाज के, राष्ट्र के बारे में दिन में एक बार सोचे इसलिए वह हमेशा प्रयत्नशील थी।

वर्ष प्रतिपदा (गुढी पाडवा) के दिन गुढी के बजाय अपने घरोंपर हमारी संस्कृती का प्रतीक भगवा ध्वज फहराया जाय यह उन्हीकी कल्पना थी। पूजा के लिए छोटे-छोटे ध्वल उन्होने ही बनवाएँ। वंदे मातरम् माँ की प्रार्थना है अतः वह गाते समय हाथ जोडने की प्रथा उन्होंने शुरु की।
पाककला में वह निपुण थी। परोसने में भी उनकी कला तथा मातृभाव का अनुभव होता था।

कुशल संघटक :
‘दो महलायें कभी एकत्र आकर कार्य करना संभव नहीं है’ यह जनापवाद उन्होंने झूठा साबित कर दिया है। आव्हान के रूप में महिलाओं का सशक्त संगठन स्थापित करके यह सिद् कर दिया कि समिती की सेंकडों सेविकाएँ मिलजुलकर आपस में आत्मीयता से ध्येय निष्ठा से राष्ट्र के लिए विधायक काम सशक्तता से कर सकती है। पूना में श्रीमती सरस्वतीबाई आपटे द्वारा महिलाओं के संगठन के कार्यकी शुरुआत की जानकारी मिलनेपर मौसीजी स्वयं पूना जाकर सरस्वतीबाईजी से मिली। मौसीजी के कुशल, आत्मीय और सौहाद्र्र व्यवहार से, प्रसन्न व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सरस्वतीबाईजी ने अपने संगठन को राष्ट्र सेविका समिती में संम्मिलित कर दिया।
पत्र व्यवहार से मौसीजी सभी के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती थी। अखंड प्रवास का सिलसिला और सेविकाओं से मिलना निरंतर शुरु ही रहता था। प्रातः स्मरण, देवी अष्टभुजा स्तोत्र, पूजा, नमस्कार इत्यादि रचनायें उन्होंने की महिलाओं की संगीत में रूचि और भक्तिभाव को देखते हुए उन्होंने भजन मण्डलके लिए प्रोत्साहित किया।

अनेक चित्रकारों को एकत्रित करके उनके सामने प्रदर्शनी के विषय रखे और चित्र निकालने का आव्हान किया। कला के द्वारा राष्ट्रीय विचारधारा पुष्ट करने मे सहयोग वाली बात की नईदृष्टी प्राप्त होनेवाली बात एक चित्रकार ने ही कही। समितीद्वारा उन्होंने अनेक प्रदर्शनियों का आयोजन करवाया।

साहसी वृत्ति :
अगस्त १९४७ कर समय था। प्रिय मातृभूमि का विभाजन होनेवाला था। मौसीजी को सिंध प्रांत की सेविका जेठी देवानी का पत्र आया कि सेविकाएँ सिंध प्रांत छोडने से पहले मौसीजी के दर्शन और मार्गदर्शन चाहती है। इससे हमारा दुःख हल्का हो जायेगा। हम यह भी चाहते है कि आप हमें श्रध्दापूर्वक कर्तव्यपालन करने की प्रतिज्ञा दे। देश में भयावह वातावरण होते हुए भी मौसीजी ने सिंध जानेका साहसी निर्णय लिया और १३ अगस्त १९४७ को साथी कार्यकर्ता वेणुताई को साथ लेकर हवाई जहाज से बम्बई से कराची गयी। हवाई जहाज मे दूसरी कोई महिला नही थी। श्री जयप्रकाश नारायणजी और पूना के श्री. देव थे वे अहमदाबाद उतर गये। अब हवाई जहाज में थी ये दो महिलाएँ और बाकर सारे मुस्लिम, जो घोषणाएँ दे रहे थे – लडके लिया पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिन्दुस्थान। कराची तक यही दौर चलता रहा। कराची में दामाद श्री चोळकर ने आकर गन्तव्य स्थान पर पहुँचाया।
दूसरे दिन १४ अगस्त को कराची में एक उत्सव संपन्न हुआ। एक घर के छतपर १२०० सेविकाएँ एकत्रित हुई। गंभीर वातावरण में वं. मौसीजी ने प्रतिज्ञा का उच्चारण किया, सेविकाओं ने दृढता पर्वक उसका अनुकरण किया। मन की संकल्पशक्तिको आवाहन करनेवाली प्रतिज्ञा ने दुःखी सेविकाओं को समाधान मिला। अन्त में मौसीजी ने कहा, ‘धैर्यशाली बनो, अपने शील का रक्षण करो, संगठन पर विश्वास रखो और अपनी मातृभूमिकी सेवा का व्रत जारी रखो यह अपनी कसौटी का क्षण है।’ वं. मौसीजी से पूछा गया – हमारी इज्जत खतरे में है। हम क्या करें? कहाँ जाएँ? वं. मौसीजीने आश्वासन दिया – ‘आपके भारत आनेपर आपकी सभी समस्याओं का समाधान किया जायेगा।’ अनेक परिवार भारत आये। उनके रहने का प्रबंध मुंबई के परिवारों में पूरी गोपनीयता रखते हुए किया गया। इस तरह असंख्य युवतियों और महिलाओं का आश्रय और सुरक्षितता देकर वं. मौसीजी ने अपने साहसी नेतृत्व का परिचय दिलाया।

व्यक्ति निष्ठा नहीं :
व. मौसीजी के जीवन का एक प्रसंग। एक शाखा में मौसीजी के आगमन की पूर्वसूचना मिलते ही सेविकाओं ने उनके स्वागत की जोरदार तैयारियाँ की। उनके लिए गौरवपर गीत रचकर गाया गया। बौद्धिक के समय वं. मौसीजीने सेविकाओं से कई प्रश्न कि और कहा कि इस गीत में एक परिवर्तन चाहिए। इसमें आपने मौसीजी कार्य के प्रति समर्पण की भावना की बात जतायी है, लेकिन यह किसी एक व्यक्ति का कार्य नही है अपितु आपको राष्ट्र सेविका समिती के राष्ट्र कार्य के प्रति समर्पण की भावना रखनी है। ऐसे कई गुणों के कारण ही वह वंदनीय बन गई।

ऐसे व्यक्तित्व को ही वंदनीय कहा जाता है। वंदनीय इसलिए नहीं कि उनके पास लम्बी उपाधियाँ थी या वह धनवान थी। न तो उनके पास कोई सिद्धी थी, न वह कोई तंत्र-मंत्र जानती थी। यह तो एक आम महिलाओं जैसी एक सरल, सीधा साधा गृहस्थी जीवन व्यतीत करनेवाली स्त्री। बाल्यकालसे ही प्राप्त राष्ट्रीय संस्कार और बुद्धिमत्ता और तेजस्विता के साथ-साथ राष्ट्रकार्य के प्रति आत्यंतिक आस्था के कारण ही उन्होंने यह अद्वितीय कार्य कर दिखाया। राष्ट्र सेविका समिती की स्थापना, अखिल भारतवर्ष में उसका प्रचार और प्रसार तथा निर्माण की हुई कार्य पद्धती जिसपर आज भी समिती का कार्य सरलता से चल रहा है। इन्हीं गुणों से उन्हें वंदनीय बताया।
यह शांत, पवित्र तेजस्वी जीवन २७ नवम्बर १९७८, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण द्वादशी, युगाब्द ५०८० को पंचत्व में विलीन हो गया। देह नष्ट हुआ, कीर्ति, प्रेरणा अमर है, निरंतर चलती रही है और आगे भी रहेगी।

किं साधितं त्वया मृत्यो। अपहृत्येद् ज्ञान निधिम्।।
नश्वरशरीरं भस्मीकृतम्। अनश्वरथशासि का ते गतिः।।

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