भाषा विज्ञानी आचार्य रघुवीर “14 मई/पुण्यतिथि”


भाषा विज्ञानी आचार्य रघुवीर “14 मई/पुण्यतिथि”

संस्कृत भारत की ही नहीं, तो विश्व की सब भाषाओं की जननी है, इसे सप्रमाण सिद्ध करने वाले आचार्य रघुवीर का जन्म 30 दिसम्बर, 1902 को रावलपिंडी (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। इनके पिता श्री मुंशीराम जी एक विद्यालय में प्राचार्य तथा माता श्रीमती जयावती एक धर्मप्रेमी गृहणी थीं।

बालपन से ही वे संस्कृत एवं अंग्रेजी में कविता लिखने लगे। रघुवीर जी छात्र जीवन में हर भाषा के व्याकरण को गहराई से समझने का प्रयत्न करते थे। व्याकरण के महान आचार्य पाणिनी का जन्म रावलपिंडी के निकट शालापुर ग्राम में हुआ था। रघुवीर जी का व्याकरण के प्रति अतिशय प्रेम देखकर इनके गुरुजन समझ गये कि यह बालक पाणिनी के कार्यों को ही आगे बढ़ाएगा।

प्राथमिक शिक्षा के बाद रघुवीर जी ने लाहौर के डी.ए.वी विद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। अब तक वे अंग्रेजी, हिन्दी, अरबी, फारसी, मराठी, बंगला, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, रूसी तथा जापानी भाषा में तज्ञ हो चुके थे। अब अजमेर आकर उन्होंने महर्षि दयानंद की अष्टाध्यायी का संपादन किया।

1925 में आचार्य रघुवीर का विवाह हुआ। 1928 में लंदन विश्वविद्यालय से पी-एच.डी कर वे लाहौर में ही संस्कृत के प्राध्यापक हो गये। अध्यापन के साथ ही वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय हुए और ‘हिन्दू रक्षक संघ’ की स्थापना की। 1942 में वे सी.पी एंड बरार से संविधान सभा के सदस्य बने तथा 1949-50 तक इस पद पर रहे। उनकी योग्यता देखकर कांग्रेस ने 1952 से 62 तक उन्हें राज्यसभा में सांसद बनाया।

आचार्य जी ने अंतरराष्ट्रीय भाषा सम्मेलन में सप्रमाण सिद्ध किया कि भारतीय संस्कृति अति प्राचीन तथा संस्कृत विश्व की सब भाषाओं की जननी है। हिन्दी भारत की प्राचीनतम ब्राह्मी लिपि तथा ध्वनि के आधार पर बोली जाने वाली भाषा है। उन्होंने विश्व भर से अनेक भाषाओं में उपलब्ध महाभारत तथा रामायण ग्रंथों की पांडुलिपियों को एकत्र कर बृहत् शोध किया।

उन्होंने इंडोनेशिया के जावा द्वीप में जोग्या नगर के पास स्थित मंदिरों पर उत्कीर्ण रामकथा के चित्रों को भी संकलित किया। विलुप्त हो चुके संस्कृत एवं भारतीय साहित्य को एकत्र करने के लिए उन्होंने 1934, 46 और 56 में क्रमशः लाहौर, नागपुर और दिल्ली में ‘सरस्वती विहार’ की स्थापना की।

आचार्य जी ने हिन्दी भाषा में दो लाख नये शब्द गढ़े। उनकी योजना 20 लाख नये शब्द बनाने की थी; पर उनके असमय निधन से यह काम रुक गया। फिर प्रधानमंत्री नेहरू जी हिन्दी और हिन्दू, संस्कृत और संस्कृति के विरोधी थे। इस कारण भी यह कार्य पूरी गति से नहीं हो पाया। इसके बाद भी आचार्य जी के प्रयास से हिन्दी निदेशालय की स्थापना हुई, वैज्ञानिक शब्दावली आयोग बना तथा हिन्दी राजभाषा घोषित हुई। आचार्य जी द्वारा चलाया गया ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन’ काफी सफल हुआ। उन्होंने जो शब्दकोश बनाया, वह आज भी हिन्दी में मानक कोश माना जाता है।

1962 में चीन के आक्रमण के समय शासन की शतुरमुर्गी नीति से नाराज होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। इसके बाद वे भारतीय जनसंघ से जुड़े और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1963 में उपचुनाव के समय जब वे डा0 राममनोहर लोहिया के पक्ष में एक जनसभा को संबोधित कर लौट रहे थे, तो 14 मई को कानपुर के पास हुई वाहन दुर्घटना में उनका प्राणांत हो गया।

आचार्य जी ने हिन्दी, संस्कृत एवं भारतीय भाषाओं की सेवा के लिए जो कार्य किया, उसके लिए उन्हें आधुनिक पाणिनी कहना अत्यन्त समीचीन है।

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