डी.ए.वी. कॉलिज के सूत्रधार पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी

आर्य समाज द्वारा संचालित डी.ए.वी. विद्यालयों की स्थापना में महात्मा हंसराज और पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का विशेष योगदान रहा है। गुरुदत्त जी का जन्म 26 अप्रैल, 1864 को मुल्तान (वर्तमान पाकिस्तान) में लाला रामकृष्ण जी के घर में हुआ था। गुरुदत्त जी ने प्रारम्भिक शिक्षा मुल्तान में पायी और फिर वे लाहौर आ गये। यहाँ हंसराज जी और लाजपत राय जी भी पढ़ रहे थे। तीनों की आपस में बहुत घनिष्ठता हो गयी।

गुरुदत्त जी की विज्ञान में बहुत रुचि थी। वे हर बात को विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखते थे। इससे धीरे-धीरे उनका स्वभाव नास्तिक जैसा हो गया; पर जब उनका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ, तो वे घोर आस्तिक हो गये। 1883 में जब ऋषि दयानन्द अजमेर में बीमार थे, तो लाहौर से दो लोगों को उनकी सेवा के लिए भेजा गया, उनमें से एक 19 वर्षीय गुरुदत्त जी भी थे।

स्वामी जी के अन्त समय को उन्होंने बहुत निकट से देखा। उनके मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। स्वामी जी के देहान्त के बाद जब लाहौर में शोकसभा हुई, तो उसमें श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए वे फूट-फूट कर रोये। उनका भाषण इतना मार्मिक था कि उपस्थित श्रोताओं की भी यही दशा हो गयी।

स्वामी जी के देहान्त से आर्यजनों में घोर निराशा छा गयी थी; पर गुरुदत्त जी ने कुछ दिन बाद सबके सामने स्वामी जी की स्मृति में ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक काॅलिज’ की स्थापना का प्रस्ताव रखा। वहाँ उपस्थित सब लोगों ने इसका तालियाँ बजाकर समर्थन किया और उसी समय 8,000.रु0 भी एकत्र हो गये। यह चर्चा कुछ ही समय में पूरे पंजाब में फैल गयी।

इस कार्य के लिए जहाँ भी सभा होती, उसमें गुरुदत्त जी को अवश्य भेजा जाता। उनकी धन की अपील का बहुत असर होता था। वे विद्यालय की योजना बहुत अच्छे ढंग से सबके सामने रखते थे। कुछ लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा का विरोध किया; पर गुरुदत्त जी ने बताया कि संस्कृत और वेद शिक्षण के साथ अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी आज की आवश्यकता है। उसके बिना काम नहीं चलेगा। उनके तर्क के आगे लोग चुप रह जाते थे।

लाला लाजपत राय उन दिनों हिसार में वकालत करते थे। वे भी गुरुदत्त जी के साथ सभाओं में जाने लगे। लाला जी के जोशीले भाषण और गुरुदत्त जी की अपील से तीन साल में 20,000 रु. नकद और 44,000 रु. के आश्वासन उन्हें मिले। अन्ततः एक जून, 1886 को लाहौर में डी.ए.वी. स्कूल की स्थापना हो गयी। हंसराज जी उसके पहले प्राचार्य बने।

1886 में ही पंडित गुरुदत्त ने विज्ञान से एम.ए. किया तथा लाहौर के सरकारी विद्यालय में प्राध्यापक हो गये। यह स्थान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। उन्होंने ‘रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ नामक पत्र भी निकाला। इसके विद्वत्तापूर्ण लेखों की देश-विदेश में काफी चर्चा हुई। गुरुदत्त जी के दो अंग्रेजी लेख ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान’ तथा ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान व यूरोप के विद्वान’ को आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।

काम का क्षेत्र बहुत विस्तृत होने के कारण गुरुदत्त जी को बहुत प्रवास करना पड़ता था। अत्यधिक परिश्रम के कारण उन्हें क्षय रोग (टी.बी) हो गया। इसके बाद भी वे विश्राम नहीं करते थे। विश्राम के अभाव में दवाएँ भी कैसे असर करतीं ? अन्ततः 19 मार्च, 1890 को केवल 26 वर्ष की अल्पायु में उनका देहान्त हो गया।

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