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डा.चम्पक रमण पिल्लई का बलिदान”23 मई/बलिदान-दिवस”

डा.चम्पक रमण पिल्लई का बलिदान”23 मई/बलिदान-दिवस”

प्रायः उच्च शिक्षा पाकर लोग धन कमाने में लग जाते हैं; पर स्वाधीनता से पूर्व अनेक युवकों ने देश ही नहीं, तो विदेश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से उच्च उपाधियां पाकर भी देशसेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। डा. चंपकरमण पिल्लई ऐसे ही एक अमर बलिदानी थे।

डा. पिल्लई का जन्म 15 सितम्बर 1881 को त्रिवेन्द्रम (केरल) में हुआ था। प्रारम्भ में उनकी रुचि अध्ययन की बजाय खेल में अधिक थी; पर कुछ विद्वानों के सहयोग से वे इटली चले गये। वहां उन्होंने 12 भाषाओं में निपुणता प्राप्त की। इसके बाद उनकी उच्च शिक्षा की भूख बढ़ती गयी और वे फ्रांस, स्विटजरलैंड और जर्मनी जाकर अध्ययन करने लगेे। बर्लिन विश्वविद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र और अभियन्ता विषय में पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वे बर्लिन में ही अभियन्ता की नौकरी करने लगे।

पर इस समय तक उनका सम्पर्क भारत की स्वतंत्रता के लिए विदेशों में काम कर रहे लोगों तथा गदर पार्टी से हो चुका था। उनसे प्रभावित होकर डा. पिल्लई भी इस अभियान में लग गये। 11 नवम्बर, 1914 को एक जंगी जहाज के सहायक कप्तान के रूप में वे बंगाल की खाड़ी में आये। वे अंदमान जेल से सावरकर जी को छुड़ाना चाहते थे; पर वे जिस छोटी पनडुब्बी से अंदमान जा रहे थे, उसे अंग्रेजों ने नष्ट कर दिया। इससे उनकी योजना असफल हो गयी। इसके बाद भी उनके साहस व बुद्धिमत्ता से घबराकर अंग्रेजों ने उनकी गिरफ्तारी के लिए कई लाख रुपये का पुरस्कार घोषित कर दिया।

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर डा. पिल्लई अफ्रीका गये, वहां उनकी भेंट गांधी जी से हुई। वस्तुतः डा. पिल्लई विदेश आने वाले भारत के सभी प्रभावी लोगों से भेंट कर उन्हें समझाते थे कि अंग्रेजों को हटाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास होने चाहिए। इसके लिए यदि दुनिया के कुछ देश सहयोग करना चाहते हैं, तो हमें उनसे सहयोग लेने में संकोच नहीं करना चाहिए।

उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई ‘वारसा संधि’ का प्रखर विरोध किया, चूंकि उसमें भारत की स्वतंत्रता की कोई बात नहीं थी। उन्होंने इस युद्ध में अंग्रेजों का विरोध किया था, इस कारण जर्मनी सरकार उन्हें सम्मानित करना चाहती थी; पर डा. पिल्लई ने इस विदेशी सम्मान को ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि मैंने यह सब भारत की स्वाधीनता के लिए किया है।

1924 में उनकी भेंट सरदार पटेल व नेहरु जी से भी हुई। उन्हें भी डा. पिल्लई ने बर्मा के मार्ग से ब्रिटिश शासन पर आक्रमण करने की अपनी योजना समझाई; पर वे दोनों इससे सहमत नहीं हुए। यों तो डा. पिल्लई के हिटलर से अच्छे सम्बन्ध थे; पर जब उन्हें पता लगा कि हिटलर के नाजी साथियों ने जर्मनी में गदर पार्टी की सम्पत्ति जब्त कर ली है, तो उन्होंने जर्मनी लौटकर इसका प्रतिरोध किया। इस पर उनकी नाजियों से सीधी झड़प हो गयी। नाजियों ने उन्हें बुरी तरह पीटा। इससे उन्हें कुछ ऐसी चोट लगी कि 42 वर्ष की अल्पायु में 23 मई, 1934 को उनका देहांत हो गया।

डा. पिल्लई की इच्छा थी भारत स्वाधीन होने के बाद उनकी अस्थियों को नौसैनिक पोत से उनके नगर में ले जाकर प्रवाहित किया जाए। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई ने 32 वर्ष तक इस कामना को संजोकर रखा। 17 सितम्बर, 1966 को उस दिवंगत वीर की यह इच्छा पूरी हुई, जब श्रीमती लक्ष्मीबाई ने नौसेना अध्यक्ष एडमिरल नंदा को वे अस्थियां सौंपी, जिन्हें पूरे विधि-विधान के साथ त्रिवेन्द्रम के पास समुद्र में विसर्जित कर दिया गया।

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