राजनीतिक क्षेत्र में संघ के दूत :रामभाऊ म्हालगी “9 जुलाई/जन्म-दिवस”
भारत ने ब्रिटेन जैसी लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाचित प्रतिनिधियों की है; पर दुर्भाग्यवश वे अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा पाते हैं। इस बारे में शोध एवं प्रशिक्षण देने वाले संस्थान का नाम है रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी, मुंबई।
श्री रामचंद्र म्हालगी का जन्म नौ जुलाई, 1921 को ग्राम कडूस (पुणे, महाराष्ट्र) में श्री काशीनाथ पंत एवं श्रीमती सरस्वतीबाई के घर में हुआ। मेधावी रामभाऊ ने 1939 में पुणे के सरस्वती मंदिर से एक साथ तीन परीक्षा देने की सुविधा का लाभ उठाते हुए मैट्रिक उत्तीर्ण की। इसी समय वसंतराव देवकुले के माध्यम से वे स्वयंसेवक बने और प्रचारक बन कर केरल चले गये।
केरल में कोयंबतूर तथा मंगलोर क्षेत्र में काम करते हुए उन्हें अपनी शिक्षा की अपूर्णता अनुभव हुई। अतः वे वापस पुणे आ गये; पर उसी समय डा. हेडगेवार का निधन हो गया। श्री गुरुजी ने युवकों से बड़ी संख्या में प्रचारक बनने का आह्नान किया। अतः वे फिर सोलापुर में प्रचारक होकर चले गये।
पर अब संघ कार्य के साथ ही पढ़ाई करते हुए 1945 में उन्होंने बी.ए. कर लिया। 1948 के प्रतिबंध काल में वे भूमिगत रहकर काम करते रहे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद उन्होंने प्रचारक जीवन को विराम दिया और क्रमशः एम.ए. तथा कानून की उपाधियां प्राप्त कीं। 1951 में बार कौंसिल की परीक्षा उत्तीर्ण वे वकालत करने लगे। 1955 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया।
प्रचारक जीवन छोड़ने के बाद भी वे संघ की योजना से पहले विद्यार्थी परिषद और फिर नवनिर्मित भारतीय जनसंघ में काम करने लगे। राजनीति में रुचि न होने पर भी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के आग्रह पर वे इस क्षेत्र में उतर गये। 1952 में जनसंघ के मंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने महाराष्ट्र के हर नगर और जिले में युवा कार्यकर्ताओं को ढूंढा और उन्हें प्रशिक्षित किया। आज उस राज्य में भारतीय जनता पार्टी के प्रायः सभी वरिष्ठ कार्यकर्ता रामभाऊ की देन हैं।
1957 में वे मावल विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। वे विधानसभा में इतने प्रश्न पूछते थे कि सत्तापक्ष परेशान हो जाता था। वे प्रतिवर्ष अपने काम का लेखा-जोखा जनता के सम्मुख रखते थे, इससे बाकी विधायक भी ऐसा करने लगे। रामभाऊ कई बार विधायक और सांसद रहे। उनके चुनावी जीवन में भी जय और पराजय चलती रही; पर वे क्षेत्र में लगातार सक्रिय बने रहते थे।
आपातकाल में वे यरवदा जेल में बन्दी रहे। वहां से भी वे विधानसभा में लिखित प्रश्न भेजते रहेे। 1977 में वे ठाणे से सांसद बने। 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की लहर होने के बावजूद वे फिर जीत गये। उनके द्वार झोपड़ी वालों से लेकर उद्योगपतियों तक के लिए खुले रहते थे। शाखा के प्रति निष्ठा के कारण वे विधायक और सांसद रहते हुए भी प्रतिदिन शाखा जाते थे।
निरन्तर भागदौड़ करने वालों को छोटे-मोटे रोग तो लगे ही रहते हैं; पर 1981 में चिकित्सकों ने रामभाऊ को कैंसर घोषित कर दिया। मुंबई के अस्पताल में जब उनसे मिलने तत्कालीन सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस आये, तो तेज दवाओं के दुष्प्रभाव से जर्जर हो चुके रामभाऊ की आंखों में यह सोचकर आंसू आ गये कि कि वे उठकर उनका अभिवादन नहीं कर पाये।
छह मार्च, 1982 को राजनीति में संघ के दूत रामभाऊ का देहांत हुआ। रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी आज भी उनके आदर्शों को आगे बढ़ा रही है।