Welcome to Vishwa Samvad Kendra, Chittor Blog पुण्यतिथि देश का विभाजन न सह सके -सरदार अजीतसिंह “15 अगस्त/पुण्य-तिथि”
पुण्यतिथि हर दिन पावन

देश का विभाजन न सह सके -सरदार अजीतसिंह “15 अगस्त/पुण्य-तिथि”



देश का विभाजन न सह सके -सरदार अजीतसिंह “15 अगस्त/पुण्य-तिथि”

15 अगस्त, 1947 को देश भर में स्वतन्त्रता प्राप्ति की खुशियाँ मनायी जा रही थीं। लोग सड़कों पर नाच गाकर एक-दूसरे को मिठाई खिला रहे थे। जिन नेताओं के हाथ में सत्ता की बागडोर आने वाली थी, वे रागरंग में डूबे थे; पर दूसरी ओर एक क्रान्तिकारी ऐसा भी था, जिससे मातृभूमि के विभाजन का वियोग न सहा गया। उसने उस दिन इच्छामृत्यु स्वीकार कर देह त्याग दी। वे थे आजादी के लिए हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा चूमने वाले शहीद भगतसिंह के चाचा सरदार अजीतसिंह। इनका पूरा परिवार ही देशभक्त था।

अजीतसिंह का जन्म पंजाब के खटकड़ कलाँ गाँव में 23 फरवरी, 1881 को हुआ था। बंग-भंग तथा अंग्रेजों की किसान विरोधी नीतियों के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों में वे लाला लाजपत राय के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। उनके भाषण से जनता उत्तेजित हो उठती थी। पूरा पंजाब क्रान्ति की आग में सुलगने लगा। इससे भयभीत होकर अंग्रेज शासन ने इन्हें पकड़ कर बर्मा की माण्डले जेल भेज दिया। जेल से छूटकर वे पत्रकार बन गये तथा अनेक नामों से समाचारपत्र निकालने लगे।

इस पर वे फिर अंग्रेजों की आँख में खटकने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज उन पर हाथ डालते, वे अपने दो साथियों के साथ ईरान चले गये। वहाँ से आस्ट्रिया, जर्मनी, ब्राजील तथा अमरीका होते हुए इटली चले गये। इस प्रकार वे लगातार विदेशों में रहकर भारतीय स्वतन्त्रता की अलख जगाते रहे। जब आजादी का समय निकट आने लगा, तो वे फिर से भारत आ गये; पर उन्हें क्या पता था कि कांग्रेसी नेता सत्ता की मलाई खाने के लालच में स्वतन्त्रता के साथ विभाजन की भी खिचड़ी पका रहे हैं। अजीतसिंह विचलित हो उठे, क्योंकि वे भारत को अखण्ड रूप से ही स्वतन्त्र देखना चाहते थे।

15 अगस्त, 1947 को जब रेडियो पर अंग्रेजों से भारतीयों के हाथ में सत्ता हस्तान्तरण के कार्यक्रम का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया जा रहा था, तो 66 वर्षीय उस क्रान्तिकारी का मन विभाजन की वेदना से भर उठा। उनका दिल टूट गया। उन्होंने परिवार के सब लोगों को बुलाकर कहा कि मेरा उद्देश्य पूरा हो गया है, अतः मैं जा रहा हूँ। परिवार वालों ने समझा कि वे फिर किसी यात्रा पर बाहर जाने वाले हैं। अतः उन्होंने समझाया कि पूरे 48 साल विदेश में बिताकर आप लौटे हैं, अब फिर से जाना ठीक नहीं है।

अजीतसिंह अपने कमरे में चले गये। जब उनकी पत्नी उन्हें समझाने के लिए वहाँ गयी, तो वे सोफे पर पैर फैलाकर बैठे थे। पत्नी को देखकर बोले – “मुझे माफ कर दो। मैं भारत माता की सेवा में लगा रहा। इस कारण तुम्हारे प्रति अपने कर्त्तव्य पूरे नहीं कर सका।” यह कहकर वे उठे और अपनी पत्नी के पैर छू लिये।

पत्नी संकोचवश पीछे हट गयी। इसके बाद अजीतसिंह सोफे पर लेट गये। उन्होंने उच्च स्वर से ‘जय हिन्द’ का नारा लगाया और आँखें बन्द कर लीं। पत्नी ने सोचा कि वे सोना चाहते हैं, अतः बिना कुछ बोले वह बाहर चली गयी; पर अजीतसिंह तो कुछ और ही निश्चय कर चुके थे। उन्होंने अपने श्वास ऊपर चढ़ाकर देह त्याग दी।

15 अगस्त को जब देश भर में तिरंगा झण्डा गाँव-गाँव और गली-गली में फहरा रहा था, ठीक उसी समय अजीतसिंह की चिता में अग्नि दी जा रही थी। इस प्रकार भारत माता के अखण्ड स्वरूप के विभाजन के वियोग में वह वीर क्रान्तिकारी अनन्त की यात्रा पर चला गया।

Exit mobile version