सन्यास के लिए निकले माँ काली के उपासक, जनजाति समाज पर अंग्रेजों के अत्याचार देख सेनानी बन गये

सन्यास के लिए निकले माँ काली के उपासक, जनजाति समाज पर अंग्रेजों के अत्याचार देख सेनानी बन गये

अल्लुरि सीताराम राजू जी की जयंती पर वंदन स्वरूप उनका संक्षिप्त जीवन परिचय।

अल्लुरि सीताराम राजु का जन्म आन्ध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के मोगल्लु ग्राम में 4 जुलाई 1897 को हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा राजसुन्दरी व राजचंद्रपुरम् में हुई। उनका मन पढ़ाई से अधिक अध्यात्म की ओर झुका रहता था। उन्होंने आयुर्वेद और ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन किया, पर उनका मन वहाँ भी नहीं लगा।

अतः समाज सेवा के लिए उन्होंने संन्यास ले लिया और भारत भ्रमण पर निकल पड़े। भारत भ्रमण के दौरान उन्हें गुलामी की पीड़ा का अनुभव हुआ। वे काली माँ के उपासक थे, एक तीर्थयात्रा के दौरान वे चटगाँव के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए और यहीं से उनकी दुनिया बदल गई। उन्होंने घुड़सवारी, तीरंदाजी, योग आदि करना सीखा।

राजू ने निर्धनों की सेवा के साथ स्वतन्त्रता प्राप्ति को भी अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। कृष्णादेवी पेठ के नीलकंठेश्वर मंदिर में उन्होंने अपना डेरा बनाकर साधना प्रारम्भ कर दी। जातिगत भेदों से ऊपर उठकर थोड़े ही समय में उन्होंने आसपास की कोया व चेन्चु जनजातियों में सम्पर्क एवं संगठन करने में सफल हुए। अंग्रेजों ने वन में निवासरत जनजाति समाज पर वन उत्पाद लेने पर रोक लगा दी। आपने जनजाति समाज के मन में गुलामी के विरूद्ध संघर्ष का बीजारोपण किया। लोग अंग्रेजों के अत्याचार से दुःखी तो थे ही, अतः अंग्रेजों के विरूद्ध शंखनाद कर दिया। जनजाति युवक तीर-कमान, भाले, फरसे जैसे अपने परम्परागत शस्त्रों को लेकर अंग्रेज सेना का मुकाबला करने लगे। अगस्त 1922 में चितापल्ली थाने पर हमलाकर उसे लूट लिया। भारी मात्रा में आधुनिक शस्त्र उनके हाथ लगे। अंग्रेजी पुलिस अधिकारी भी हताहत हुए।

अब तो राजु की हिम्मत बढ़ गई। उन्होंने दिन दहाड़े थानों पर हमले प्रारम्भ कर दिये। उनके सेनानी साथियों में बीरैया दौरा भी थे, जिनको जब पुलिस जेल से अदालत ले जा रही थी तो राजू ने अपने दल के साथ धावा बोल कर छुड़वा लिया, तो अंग्रेजी सरकार ने राजू को पकड़वाने वाले को 10 हजार का इनाम देने की घोषणा कर दी, इसके बावजूद राजू अनेक वर्षों तक अंग्रेज सत्ता को नाकों चने चबवाते रहे।

आन्ध्र के कई क्षेत्रों से अंग्रेज शासन समाप्त होकर राजु का अधिकार हो गया। उन्होंने ग्राम पंचायतों का गठन किया, इससे स्थानीय मुकादमें शासन के पार जाने बन्द हो गये। लोगों ने शासन को कर देना भी बन्द कर दिया।

अंग्रेज अधिकारियों को लगा कि यदि राजु की गतिविधियों पर नियन्त्रण नहीं किया गया, तो बाजी हाथ से बिलकूल ही निकल जाएगी। उन्होंने राजु का मुकाबला करने के लिए गोदावरी जिले में असम से सेना बुला ली। परम्परागत शस्त्रों के साथ मुकाबला जारी रखा। पेड्डावलसा के संघर्ष में उनकी भारी क्षति हुई, पर राजु बच निकले। अंग्रेज फिर हाथ मलते रह गए।

हताश अंग्रेज निरपराध ग्रामीणों पर अत्याचार करने लगे। यह सब राजु से सहन नहीं हुआ और उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेज तो यही चाहते थे। उन्होंने 8 मई 1924 को राजु को पेड़ से बाँधकर गोली मार दी। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी, संन्यासी, प्रभुभक्त और समाज सुधारक बलिदान हो गये।

पिछले वर्ष राजू की 125वीं जयंती पर हैदराबाद में आयोजित समारोह में राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू भी सम्मिलित हुई।

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