पत्रयात्री शरद लघाटे “12 अक्तूबर/जन्म-दिवस”
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री शरद लघाटे का जन्म 12 अक्तूबर, 1940 को इगतपुरी (महाराष्ट्र) में श्री दत्तात्रेय एवं श्रीमती सुशीला देवी के घर में हुआ था। उनके पिताजी उन दिनों इगतपुरी से भुसावल के बीच चलने वाली रेलगाड़ी के चालक थे। मूलतः कोंकण निवासी यह परिवार फिर ग्वालियर आ गया। शरद जी की ननिहाल भी वहीं थी।
तीन भाइयों में शरद जी दूसरे नंबर पर थे। श्री दत्तात्रेय निष्ठावान स्वयंसेवक थे। 1948 के प्रतिबंध के समय उनके घर पर संघ की गुप्त बैठकें होती थीं। दस दिवसीय गणेशोत्सव के दौरान तो लगातार इसका सिलसिला चलता रहता था। शरद जी के मामा श्री भालचंद्र खानवलकर भी दो वर्ष प्रचारक रहे थे। इस प्रकार पूरा परिवार संघ विचार से अनुप्राणित था।
शरद जी ने इगतपुरी से मिडिल, नागपुर से इंटर (साइंस) तथा ग्वालियर से बी.ए. और अंग्रेजी में एम.ए. किया। जिन दिनों उनके पिताजी नागपुर में थे, तब उनके सरकारी घर के पास स्थित पुलिस चैकी के पीछे शाखा लगती थी। बड़े भाई रामचंद्र जी वहां जाते थे। स्थानीय प्रचारक श्री गोविन्दराव कुलकर्णी प्रायः घर पर आते रहते थे। उनके प्रयास से शरद जी भी शाखा जाने लगे। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी भी दो-तीन बार उनके घर आये थे।
1958 में शरद जी ने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग (प्रथम वर्ष) का प्रशिक्षण लिया। उनकी माता जी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्हें डर था कि अपने मामा की तरह ये भी प्रचारक बन जाएगा। अंततः तीन दिन के अनशन के बाद शरद जी को अनुमति मिली। फिर उन्होंने द्वितीय और तृतीय वर्ष भी किया। संघ शिक्षा वर्ग में वे दंड, योगचाप और व्यायाम योग के शिक्षक रहते थे।
इसके बाद श्री गोविन्दराव और अपने पिताजी की प्रेरणा से शरद जी प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें मुरैना नगर और दो वर्ष बाद वहीं जिला प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। इसके बाद उन्हें मंदसौर जिले का काम दिया गया। पूरे जिले में वे साइकिल से घूमते थे। मंदसौर में वे कई वर्ष रहे। 1975 में आपातकाल लगने पर वे वहीं थे। फिर उन्हें भोपाल बुला लिया गया। वहां नया कार्यालय ‘समिधा’ बन चुका था; पर पुलिस ने उसे सीलबंद नहीं किया था। पुराना कार्यालय श्री उत्तमचंद इसराणी के घर में था। शरद जी दोनों जगह आते-जाते थे। इस प्रकार वे सबसे सम्पर्क बनाकर आवश्यक सूचनाएं देते रहते थे। आपातकाल के बाद वे भोपाल में ही रहकर प्रांत कार्यवाह इसराणी जी के सहायक के नाते उनका पत्र-व्यवहार देखने लगे।
आपातकाल के बाद उन्हें ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में मुंबई भेजा गया। ‘संस्कृति रक्षा निधि’ के संग्रह के बाद उसका हिसाब काफी जटिल तथा फैला हुआ था। बाद में उसमें कुछ समस्याएं भी खड़ी हो गयीं। उन दिनों श्री हुपरीकर जी निधि-विधि प्रमुख थे। उनके साथ शरद जी को भी इस काम में लगा दिया गया। दोनों ने मिलकर सारा हिसाब ठीक किया। इसके बाद आचार्य गिरिराज किशोर जी उन्हें दिल्ली में केन्द्रीय कार्यालय पर ले आये। धीरे-धीरे उन्होंने यहां का सब हिसाब-किताब संभाल लिया।
अध्ययनशील होने के कारण शरद जी को ‘सम्पादक के नाम पत्र’ लिखने का शौक था। इसकी प्रेरणा उन्हें नागपुर में श्री पांडुरंग पंत क्षीरसागर ने दी थी। वे हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के पत्रों में चिट्ठियां लिखते थे। तथ्यात्मक होने के कारण अधिकांश पत्र छपते भी थे। प्रकाशित पत्रों की फाइल बनाकर वे प्रतिवर्ष संघ तथा वि.हि.प. के प्रमुख कार्यकर्ताओं को देते थे। धीरे-धीरे उन्होंने इसे एक विधा का रूप दे दिया और ‘मेरी पत्र-यात्रा’ नामक पुस्तक बना दी, जो सभी नये पत्र लेखकों के लिए मार्गदर्शक है।
पिछले कई वर्ष से वे तीव्र मधुमेह के शिकार थे। इसका दुष्प्रभाव उनकी आंखों तथा टांगों पर भी था। 30 मई, 2015 को रात्रि में दिल्ली के सफदरजंग चिकित्सालय में उनका निधन हुआ।
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