कन्नड़ साहित्य के उन्नायक डा. फकीरप्पा हलकट्टी “2 जुलाई/जन्म-दिवस”


कन्नड़ साहित्य के उन्नायक डा. फकीरप्पा हलकट्टी “2 जुलाई/जन्म-दिवस”

कन्नड़ साहित्य एवं संस्कृति से अत्यधिक प्रेम करने वाले डा. फकीरप्पा हलकट्टी का जन्म 2 जुलाई, 1880 को कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी धारवाड़ के एक निर्धन बुनकर परिवार में हुआ। इनके पिता गुरुबसप्पा अध्यापक एवं साहित्यकार थे। तीन साल में माँ दानम्मा का निधन होने के कारण उनका पालन दादी ने किया। दादी ने कर्नाटक के वीरों, धर्मात्माओं तथा साहित्यकारों की कथाएँ सुनाकर फकीरप्पा के मन में कर्नाटक के गौरवशाली इतिहास व कन्नड़ साहित्य के प्रति उत्सुकता जगा दी।

शिक्षा के प्रति रुचि के कारण उन्होंने सभी परीक्षाएँ अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कीं। 1896 में मैट्रिक पास कर वे मुम्बई आ गये। वहाँ उन्होंने अनेक भाषाओं का अध्ययन किया। मुम्बई में मराठी और गुजराती भाषी लोग बहुसंख्यक हैं। फकीरप्पा उनके साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाने लगे। उनके मन में यह भाव जाग्रत हुआ कि कन्नड़ भाषा में भी ऐसे कार्यक्रम होने चाहिए। उन्होंने इसके लिए स्वयं ही प्रयास करने का निश्चय किया।

यों तो मुम्बई में फकीरप्पा विज्ञान पढ़ रहे थे; पर अधिकांश समय वे कन्नड़ साहित्य की चर्चा में ही लगाते थे। छुट्टियों में घर आकर वे पिताजी से इस विषय में खूब बात करते थे। 1901-02 में उन्होंने बी.एस-सी. की डिग्री ली। इसी समय उनका विवाह भागीरथीबाई से हुआ। 1904 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। अब उनके लिए धन और प्रतिष्ठा से परिपूर्ण सरकारी नौकरी के द्वार खुले थे; पर उनके मन में तो कन्नड़ साहित्य बसा था। अतः वे बेलगाँव आकर वहाँ के प्रसिद्ध वकील श्री चौगुले के साथ काम करने लगे। कुछ समय बाद वे बीजापुर आ गये।

डा. हलकट्टी वकालत को जनसेवा का माध्यम मानते थे, इसलिए मुकदमे की फीस के रूप में ग्राहक ने जो दे दिया, उसी में सन्तोष मानते थे। वह सब भी वे पत्नी के हाथ में रख देते थे। पत्नी ने बिना शिकायत किये उससे ही परिवार चलाया। यदि कोई निर्धन उनके पास मुकदमा लेकर आता, तो वे उससे पैसे ही नहीं लेते थे। इस कारण वे सब ओर प्रसिद्ध हो गये।

कन्नड़ साहित्य के उत्थान में रुचि होने के कारण वकालत के बाद का समय वे इसी में लगाते थे। 1901 से 1920 तक अनेक नगरों तथा ग्रामों में भ्रमण कर उन्होंने ताड़पत्रों पर हाथ से लिखी एक हजार से भी अधिक प्राचीन पाण्डुलिपियाँ एकत्र कीं। न्यायालय से आते ही वे उनके अध्ययन, सम्पादन और वर्गीकरण में जुट जाते थे। 1921 में वे बीजापुर से बेलगाँव चले गये। वहाँ उनकी वकालत तो खूब बढ़ी; पर साहित्य साधना में व्यवधान आ गया। अतः दो साल बाद वे फिर बीजापुर लौट आये। डा. हलकट्टी के ज्ञान, अनुभव व प्रामाणिकता को देखकर शासन ने उन्हें सरकारी वकील बना दिया।

उन्होंने अनेक दुर्लभ गद्य व पद्य कृतियों का सम्पादन किया। इनमें प॰चशतक, रक्षाशतक, गिरिजा कल्याण महाप्रबन्ध, बसवराज देवर रगले, नम्बियण्णन रगले आदि प्रमुख हैं। उन्होंने भक्त कवि हरिहर का काव्य तथा 12वीं शती की सामाजिक विभूतियों के जीवन चरित् सरल भाषा में लिखकर प्रकाशित किये। साहित्यिक तथा धार्मिक विषयों पर उनके हजारों शोधपूर्ण लेख छपे हैं। उन्होंने अनेक शैक्षिक, सहकारी तथा ग्राम विकास संस्थाएँ भी प्रारम्भ कीं। कन्नड़ साहित्य के इस उन्नायक का 26 जून, 1964 को देहान्त हुआ।

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