राष्ट्रीय व आध्यात्मिक स्वत्व की रक्षा के लिए बिरसायत पंथ ने किया उलगुुलान
भारतीय सभ्यता का मूल स्वरूप सदैव समन्वय, सद्भाव और सह-अस्तित्व का रहा है। नगरों, ग्रामों और वनांचलों में रहने वाले समुदाय परस्पर सहयोग और सम्मान की परंपरा से बंधे थे। रामचरितमानस में श्रीराम और निषादराज गुह के प्रसंग से लेकर सौराष्ट्र में हम्मीर गोहिल-वेगड़ा जी भील, मेवाड़ में राणा प्रताप–राणा पूंजा, रानी दुर्गावती और अहोम साम्राज्य —सभी उदाहरण दिखाते हैं कि भारतीय समाज में जनजातियाँ और पुरावासी सदियों से शासन और समाज व्यवस्था के अभिन्न सहचरी रहे हैं।
किन्तु यह शांत-संतुलित व्यवस्था तब विचलित हुई, जब ब्रिटिश शासन और उनके साथ आए ईसाई मिशनरियों ने भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों पर आघात करना प्रारंभ किया। व्यापार के बहाने आए अंग्रेजों ने वन क्षेत्र को अपनी संपत्ति घोषित कर दिया और लगान वसूली के लिए जमींदार नियुक्त कर सामंजस्य की परंपरा को तोड़ दिया। वन अधिनियम 1865, 1878, 1882, क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871, तथा डालहौजी चार्टर 1855 जैसे दमनकारी कानूनों ने जनजातीय आजीविका को संकट में डाल दिया।
इसी के समानांतर मिशनरियों ने भारतीय संस्कृति को ‘असभ्य’ बताकर मतांतरण का अभियान चलाया, जिसे ब्रिटिश बुद्धिजीवी—मैकाले, मैक्समूलर, वेरियर एल्विन जैसी संस्थागत शक्तियों ने वैचारिक समर्थन देकर आगे बढ़ाया। यह सब मिलकर एक गहरे सांस्कृतिक आक्रमण का हिस्सा बने।
बिरसा मुंडा: सांस्कृतिक अस्मिता और स्वराज्य के प्रहरी
ऐसी परिस्थितियों में उभरे धरती आबा बिरसा मुंडा, जिनका उद्देश्य केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि सांस्कृतिक जागरण भी था। ईसाई मिशन स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने अपनी परंपराओं पर हो रहे आक्रमण को निकट से देखा, तो मिशनरी मत को अस्वीकार कर पुनः अपने धर्म–संस्कारों को अपनाया। उनके संपर्क में आए स्थानीय विद्वानों—जैसे वैष्णव पंथ के आनंद पांड—ने उनके चिंतन को नई दिशा दी।
1893–1895 के बीच भूमि अधिग्रहण कानून के अंतर्गत ‘आरक्षित वन’ की घोषणा ने जनजातीय भू-अधिकारों को छीन लिया। जब चराई, ईंधन, फल–फूल और औषधीय संसाधनों तक पहुँच रोक दी गई।


आक्रमणकारी रवैये के विरुद्ध भगवान बिरसा ने जनजातियों को संगठित कर बिरसायत पंथ की स्थापना की। उन्होंने दो मोर्चों पर संघर्ष की घोषणा करते हुए कहा — “साहेब-साहेब एक टोपी है।”
- ब्रिटिश शासन के दमन और अन्याय के विरुद्ध।
- मिशनरियों के सांस्कृतिक–धार्मिक हस्तक्षेप के विरुद्ध।
उन्होंने कहा – “अबुआ दिशुम, अबुआ राज” अर्थात हमारा देश, हमारा राज। साथ ही लगान बेगारी को बंद कर दिया।
दूसरे मोर्चे पर धरती आबा बिरसा ने आस्थागत मान्यता को दृढ करते हुए शिक्षाएँ दी—नशा त्याग, सात्विक जीवन, ग्रंथ पाठ, नैतिक आचरण, तुलसी पूजा, गौहत्या-विरोध और पूर्वजों का स्मरण को अनिवार्य हिस्सा बनाया।
1899–1900 का उलगुलान केवल विद्रोह नहीं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक–आध्यात्मिक स्वाभिमान का उद्घोष था। खूंटी, डोम्बारी बुरू और चाईबासा क्षेत्रों में हुए नरसंहारों में सैकड़ों लोग बलिदान हुए, परंतु भारत ने एक राष्ट्रीय नायक पाया। इस तरह वह जनजातीय समाज में ही नहीं, पूरे भारत में जागरण के अग्रदूत माने जाते हैं।
गोविन्द गुरु और भगत आंदोलन: वागड़ का उजाला
भगवान बिरसा मुण्डा की तर्ज पर ही 2 मोर्चो पर गोविन्द गुरु द्वारा 1890 में भगत आंदोलन शुरू किया गया। वागड़ में नैतिक सुधार, नशामुक्ति, अन्याय-विरोध और विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान किया। उनकी शिक्षाएँ—सादगी, धूणी, भजन, नशा त्याग, परिश्रम, बेगारी–लगान का बहिष्कार, विदेशी वस्त्रों का त्याग—सनातन मूल्यों और बिरसा के संदेशों से पूरी तरह सामंजस्य में थीं। उनकी हुंकार “नई मानू रे भूरेतिया नई मानू” ने अंग्रेजी शासन को चुनौति दी। षडयंत्र के तहत मानगढ़ धाम पर 1913 में जनजातियों भगतों का जनसंहार ब्रिटिश दमन का भयानक उदाहरण है।
नानक भील: किसान–जनआंदोलन के अग्रदूत
1922–23 में हाड़ौती के किसान आंदोलनों में नानक जी भील ने झण्डा गीत “गाढ़ा रहिज्यों रे मरदाओ…” से अत्याचार के विरुद्ध जनचेतना जगाई और अंततः बलिदान दिया।
भारत की विविध जनजातियाँ—भील, मुण्डा, उरांव, संथाल, गारो, काशी, मीणा—सभी प्रकृति व आदि शक्ति पूजक है और सत्यनिष्ठ, साहसी और सनातन मूल्यों के निकट हैं। यह कहना गलत नहीं कि भारत की सांस्कृतिक रीढ़ का एक बड़ा हिस्सा जनजातीय समाज ने सदैव संभाला है।
आज जब हम जनजातीय गौरव दिवस मनाते हैं, तो यह स्मरण करना आवश्यक है कि धरती आबा बिरसा, सिद्धो-कान्हू, तिलका मांझी, टंट्या मामा, रानी गाईदिन्ल्यू, काली बाई भील, नानक भील, ये सब जनजाति समुदाय से है, पर पूरे राष्ट्र के नायक हैं। औपनिवेशिक आक्रमकता के विरुद्ध इनका संघर्ष भारत की आत्मा की रक्षा का संघर्ष था
प्रश्न यह उठता है कि—
NCERT में फ्रांस की क्रांति, रूस की बोल्शेविक क्रांति और यूरोप की घटनाओं को पढ़ाने की आवश्यकता तो समझी गई, पर अंग्रेजों के विरुद्ध हुए इतने व्यापक जनजातीय विद्रोह और इन भारतीय जननायकों को क्यों नहीं पढ़ाया गया? क्या स्वतंत्र भारत के अकादमिक नीति निर्माता भी औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेष थे?
भारतीय समाज की एकात्मता
गोविन्द गुरू व मामा मालेश्वर दयाल सहित अनेक गैर-जनजातीय नायक भी जनजातीय संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए—
एकी आंदोलन के नायक मोतीलाल तेजावत ने जनजातीय हितों के लिए अपना जीवन समर्पित किया। माणिक्यलाल वर्मा और भंवर लाल स्वर्णकार ने भी आदिवासी अधिकारों को उठाया।
डॉ. केशवराव हेडगेवार, जिन्होंने ब्रिटिश के दमनकारी वन कानून 1927 के विरुद्ध 1930 में यवतमाल के निकट जंगल सत्याग्रह का शुभारंभ कर कानून तोड़ा और इसके लिए उन्होंने 9 माह का कारावास सहा। यह इस बात का प्रमाण है कि जनजातीय हित भारतीय राष्ट्रीयता के केंद्र में थे।
मिशनरियों और औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीय समाज को विभाजित करने का प्रयास अवश्य किया, किंतु ऐतिहासिक सत्य यह है कि भारत में जनजातियाँ, वनवासी, ग्रामवासी और नगरवासी सदियों से एक साझा धर्म–संस्कृति और जीवन-मूल्यों से बंधे रहे हैं। आदिशक्ति व आदिदेव की आराधना से लेकर ऋषि वाल्मिकि व शबरी माता के प्रति पूर्वज के रूप श्रद्धा रखने तक सनातन आस्था का अभिन्न अंग है। एकात्म परंपरा का वहन करते हुए जनजातीय नायकों ने सांस्कृतिक स्वतंत्रता व स्वराज्य की ज्योति को सदैव प्रज्ज्वलित रखा। आज जनजातीय गौरव दिवस उसी अखंड राष्ट्रीय चेतना का उत्सव है।