श्रुतम्-1184 “सबके राम-1”

रामो विग्रहवान् धर्मः।”
यह ‘रामत्व’ का ‘बीज’ शब्द है। राम धर्म के ‘विग्रह’ हैं, मूर्ति नहीं। विग्रह में प्राण होता है। मूर्ति निष्प्राण होती है। रामनाम से धर्म स्पंदित होता है। वाल्मीकि रामायण के ‘अरण्यकांड’ का यह सूत्र राम को संपूर्णता में परिभाषित करता है। यह एक वाक्य समग्र कालखंड, धर्मशास्त्र, ऋषि वचनों पर भारी पड़ता है। यह सूत्र इतने कालातीत अर्थों के साथ ध्वनित होता है कि इसमें समूची विश्व-संस्कृति के ‘रामतत्त्व’ की अनंत व्याख्याएँ व्यक्त होती हैं।

हमारी मानवीय, जातीय, लोकागम, ऐतिहासिक, वैदिक, पौराणिक चेतना में जो भी सर्वश्रेष्ठ है, सर्वानुकूल है, सर्वयुगीन है, सर्वधर्म है, वह सब ‘रामतत्त्व’ में समाता है। विश्व संस्कृति में फैले रामतत्त्व तक मनुष्य के लिए जो भी सर्वोत्तम है, वह ‘राम’ है।

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