आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा- 26

जब केवल आर्थिक उन्नति होती है, तो व्यक्ति का सामर्थ्य बढ़ता है, साधन-संपन्नता भी बढ़ जाती है। लेकिन जब सामर्थ्यवान, संपन्न व्यक्ति आध्यात्मिक मूल्यों से विमुख हो जाता है, तो वह समाज से भी दूर होकर एकाकी (अकेला) हो जाता है।

बर्नार्ड शॉ लिखते हैं कि
“मनुष्य जितना अधिक संपन्न, शिक्षावान हुआ, उतना अकेला रह गया। जो ज्यादा संपन्न है, उसकी स्थिति बिलियर्ड की गेंद की तरह हो जाती है। दो गेंदें आती हैं और टकराकर दूर चली जाती हैं। दो संपन्न लोग, दो क्षमतावान, दो विद्वान् लोग जब निकट आते हैं, तो टकराकर दूर जाने के लिए ही निकट आते हैं। जब अकेले होते हैं तो एकाकी हो जाते हैं, तो सुख कहाँ मिलेगा ?”

व्यापारिक जीवन में व्यापार के आधार पर नहीं, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के आधार पर व्यापार करना और इसके आधार पर आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ना ही वास्तव में ‘आत्मनिर्भरता’ है।
भारत के व्यापारी ने कभी ‘शुद्ध लाभ’ नहीं लिखा, बल्कि सदैव ‘शुभ-लाभ’ लिखा है। शुभ-लाभ, यानी वह लाभ, जो शुभ साधनों से आ रहा है और धर्म संगत है। यह लाभ आध्यात्मिक है, सांस्कृतिक है। अशुद्ध नहीं है, धोखा नहीं है, असत्य नहीं है। यह मंगलकारी लाभ है।
कोरोना काल में हमने अपने देश के इसी स्वभाव को देखा। वसुधैव कुटुंबकम् का जो हमारा आध्यात्मिक स्वभाव व दर्शन है कि सबके सुख के साथ, सबके मंगल के साथ, उसे प्रत्यक्ष चरितार्थ करते हुए कोरोना काल में दुनियां के देशों को निःशुल्क दवाइयाँ, अन्न व अन्य आवश्यक सामान भेजा।

हमने बड़े-बड़े विस्फोट देखे, परिवर्तन देखे। आजादी के बाद से हमारे देश का परिदृश्य काफी बदल गया है। आज भारत की युवा शक्ति कृषि से लेकर सेना तक, विज्ञान से चिकित्सा तक, शिक्षा से लेकर व्यापार तक प्रतिभा और ऊर्जा के साथ विश्व के परिदृश्य में अपने को उपस्थित कर रहा है। दुनियां का कोई देश ऐसा नहीं है, जहाँ भारत के डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, प्रबंधक आदि अपना विशेष स्थान बनाकर सेवाएँ न दे रहे हों।
आठ सौ वर्षों की गुलामी कम नहीं होती। दुनियां का कोई भी देश 200-250 वर्षों की गुलामी के बाद उभर नहीं पाया। लेकिन भारत आठ सौ वर्षों की गुलामी के बाद भी अपने ‘स्व’ के पुनर्जागरण के साथ, अपने आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों और वर्तमान की शिक्षा व विज्ञान के सुंदर सामंजस्य के साथ आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है..।

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