आत्मनिर्भर भारत तथा हमारी अवधारणा- 28

भारत की आत्मनिर्भरता के मूल में विश्व कल्याण ही है। यही बात दुनियां के समस्त इतिहासकारों, समाजशास्त्री और दार्शनिकों ने कही है। भारत की आत्मनिर्भरता के विचार में भारत के मौलिक तत्त्व को ध्यान में रखना है।
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने भारत के संबंध में कविता लिखी है, जिसमें भारत के भाव को बताया है। भारत एक विचार है, भारत एक दर्शन है, भारत एक दिशा है, भारत जीवन-मूल्यों का एक समुच्चय है।

श्री ‘दिनकर’ जी लिखते हैं:-
वृथा मत लो भारत का नाम।
मानचित्र में जो मिलता है, नहीं देश भारत है, भू पर नहीं, मनों में ही, बस, कहीं शेष भारत है।
भारत एक स्वप्न भू को ऊपर ले जाने वाला, भारत एक विचार, स्वर्ग को भू पर लाने वाला।
भारत एक भाव, जिसको पाकर मनुष्य जगता है, भारत एक जलज, जिस पर जल का न दाग लगता है।
भारत है संज्ञा विराग की, उज्ज्वल आत्म उदय की, भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की।
भारत है भावना दाह जग-जीवन का हरने की, भारत है कल्पना मनुज को राग-मुक्त करने की।
जहाँ कहीं एकता अखंडित जहाँ प्रेम का स्वर है, देश-देश में खड़ा वहाँ भारत जीवित, भास्वर है।
भारत वहाँ जहाँ जीवन-साधना नहीं है भ्रम में, धाराओं को समाधान है मिला हुआ संगम में।
जहाँ त्याग माधुर्यपूर्ण हो, जहाँ भोग निष्काम, समरस हो कामना,
वहीं भारत को करो प्रणाम।
वृथा मत लो भारत का नाम।

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