भारत को रक्तरंजित करने का षड्यंत्र-19

विध्वंसक चौकड़ी के निशाने पर आदिवासी (वनवासी)-2

मिशनरियों में विलियम विल्बर्फोर्स तथा चार्ल्स ग्रांट ने भारतीय जीवन मुल्यों (भारतीय नैतिकता एवं चरित्र) को बहुत ही निम्न स्तर का बताया। उनके अनुसार इस ‘अंधकार’ का सही ‘उपचार’ प्रकाश था। यह भारतीयों में विशेषकर वनवासीयों में अपनी श्रेष्ठ परम्पराओं, रीति-रिवाजों के प्रति हीनभाव और अविश्वास उत्पन्न कर दिग्भ्रमित करने का कुत्सित प्रयास था..।

उनके शब्दों में- “अंधकार का सही उपचार रोशनी से रूबरू कराना है। हिंदू गलत राह पर चलते रहे हैं, क्योंकि वे जाहिल हैं और उनकी खामियों को कभी निष्पक्ष रूप से उनके सामने रखा ही नहीं गया। हमारे ‘प्रकाश और ज्ञान’ के साथ संवाद ही उनके विकारों को दूर करने का उपयुक्त उपचार है।”
[David, June (1984), pp. 19-29]

कंपनी के सन् 1833 के चार्टर में भारत में ईसाई मिशनरियों की स्थायी उपस्थिति को मंजूरी दे दी गई। साथ ही कोलकाता में अंग्रेजी चर्च के पदाधिकारियों के लिए सभी व्यवस्थाएं की गईं। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ ही ईसाई धर्म प्रचारकों का प्रसार आरम्भ हुआ। मद्रास और बांबे में डायोसिस की स्थापना की गई।

इसके साथ ही ‘औपनिवेशिक शासन व्यवस्था’ और ‘मिशनरियों’ के बीच एक नई साझेदारी के युग का सूत्रपात हुआ। दोनों ने देश पर अनाधिकृत कब्जा करने के लिए एक-दूसरे के अभियानों में पूरी सहायता की।

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