स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक
स्वतन्त्रता नियमित चलने वाली प्रक्रिया-5
[●विदेश नीति]
हमारी विदेश नीति हमारी विश्वदृष्टि पर आधारित होने के साथ ही, देश का और देश के लोगों का हित साधनेवाली होनी चाहिए। हमारी विश्वदृष्टि है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, ‘स्वदेशो भुवनत्रयम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’। परन्तु ऐसा करते समय हमने देश और देश के लोगों के हित की ओर जरा भी दुर्लक्ष्य नहीं करना चाहिए। इसके अलावा केवल दूतावास के लोग ही नहीं, विदेशों में रहनेवाले लोग भी भारत के सांस्कृतिक राजदूत जैसी भूमिका निभा सकें ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए। इस दृष्टि से विदेशों में रहनेवाले भारतीयों की सब प्रकार से देखभाल करने के साथ ही, उन का वहाँ रहना स्थानीय समाज के लिए
उपयोगी हो यह भी देखा जाना चाहिए। अतः जहाँ एक ओर वे उनका निर्धारित कार्य प्रामाणिकता और कुशलता से करें यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, वहीं दूसरी ओर भारत की जिन विशेषताओं से दुनिया के लोग प्रभावित और सुखी हो सकते हैं (योग, भारतीय संगीत-कला-नृत्य, सेवाभाव, आयुर्वेद, संस्कृत, आध्यात्मिक ज्ञान इत्यादि) उन का ज्ञान स्थानीय समाज के साथ बाँटने में भी वे लोग आगे आएँ इस बात के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
आज प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद तो नहीं है, लेकिन उपनिवेशवादी मानसिकता अधिकांश विकसित देशों में आज भी विद्यमान है। इसी के कारण विकसित देशों द्वारा पर्यावरण संरक्षण जैसे आकर्षक नारों के नामपर विकासशील और अविकसित देशों के (जिन में विश्व के ९०% से भी अधिक देश आते हैं) विकासमार्ग में बाधाएँ उत्पन्न की जाती हैं, जबकि इन्हीं विकसित देशों ने स्वयं का विकास करते समय पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुँचाई है और अपनी विलासितापूर्ण जीवनशैली से आज भी पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुँचा रहे हैं। इसी तरह वैश्वीकरण का नाम लेकर विकसित देश अन्य देशोंपर आर्थिक शिकंजा कस रहे हैं। अतः पर्यावरण और आर्थिक संप्रभुता का संरक्षण करते हुए भी विकासशील और अविकसित देशों का विकास हो सकता है यह दिखाना होगा। भारत इस मार्ग से स्वयं का विकास करते हुए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और इस तरह इन देशों का नेतृत्व कर सकता है।
उपरोक्त बातों के कारण अन्य देशों से भारत के संबंध तो सुदृढ़ होंगे ही, धीरे-धीरे भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ इस रूप में मान्यता मिलना भी प्रारंभ होगा।