चाफेकर बन्धुओं द्वारा वाल्टर चार्ल्स रैण्ड तथा आयर्स्ट-ये का वध “22 जून / इतिहास स्मृति”

चाफेकर बन्धुओं द्वारा वाल्टर चार्ल्स रैण्ड तथा आयर्स्ट-ये का वध “22 जून / इतिहास स्मृति”

सन्‌ 1897 में पुणे नगर प्लेग जैसी भयंकर बीमारी से पीड़ित था। इस स्थिति में भी अंग्रेज अधिकारी जनता को अपमानित तथा उत्पीड़ित करते रहते थे। वाल्टर चार्ल्स रैण्ड तथा आयर्स्ट-ये दोनों अंग्रेज अधिकारी लोगों को जबरन पुणे से निकाल रहे थे। जूते पहनकर ही हिन्दुओं के पूजाघरों में घुस जाते थे। इस तरह ये अधिकारी प्लेग पीड़ितों की सहायता की जगह लोगों को प्रताड़ित करना ही अपना अधिकार समझते थे। पुणे के ही श्री हरिभाऊ चाफेकर तथा श्रीमती लक्ष्मीबाई के तीन पुत्र थे-दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर। ये तीनों भाई लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सम्पर्क में थे। तीनों भाई तिलक जी को गुरुवत्‌ सम्मान देते थे। किसी अत्याचार-अन्याय के सन्दर्भ में एक दिन तिलक जी ने चाफेकर बन्धुओं से कहा, “शिवाजी ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो?’ इसके बाद इन तीनों भाइयों ने क्रान्ति का मार्ग अपना लिया। संकल्प लिया कि इन दोनों अंग्रेजश् अधिकारियों को छोड़ेंगे नहीं।

संयोगवश वह अवसर भी आया, जब 22 जून 1897 को पुणे के “गवर्नमेन्ट हाउस’ में महारानी विक्टोरिया की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जाने वाली थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। दामोदर हरि चाफेकर और उनके भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के साथ वहां पहुंच गए और इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे। रात 12 बजकर, 10 मिनट पर रैण्ड और आयर्स्ट निकले और अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर चल पड़े। योजना के अनुसार दामोदर हरि चाफेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गया और उसे गोली मार दी, उधर बालकृष्ण हरि चाफेकर ने भी आर्यस्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया, किन्तु रैण्ड तीन दिन बाद अस्पताल में चल बसा। पुणे की उत्पीड़ित जनता चाफेकर-बन्धुओं की जय-जयकार कर उठी। गुप्तचर अधीक्षक ब्रुइन ने घोषणा की कि इन फरार लोगों को गिरफ्तार कराने वाले को 20 हजार रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।

चाफेकर बन्धुओं के क्लब में ही दो द्रविड़ बन्धु थे- गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंन्द्र द्रविड़। इन दोनों ने पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चाफेकर बन्धुओं का सुराग दे दिया। इसके बाद दामोदर हरि चाफेकर पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चाफेकर पुलिस के हाथ न लगे। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चाफेकर को फांसी की सजा दी और उन्होंने मन्द मुस्कान के साथ यह सजा सुनी। कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें “गीता’ प्रदान की। 18 अप्रैल 1898 को प्रात: वही “गीता’ पढ़ते हुए दामोदर हरि चाफेकर फांसीघर पहुंचे और फांसी के तख्ते पर लटक गए। उस क्षण भी वह “गीता’ उनके हाथों में थी। इनका जन्म 25 जून 1869 को पुणे जिले के चिंचवड़ नामक स्थान पर हुआ था।

उधर बालकृष्ण चाफेकर ने जब यह सुना कि उसको गिरफ्तार न कर पाने से पुलिस उसके सगे-सम्बंधियों को सता रही है तो वह स्वयं पुलिस थाने में उपस्थित हो गए। अनन्तर तीसरे भाई वासुदेव चाफेकर ने अपने साथी महादेव गोविन्द विनायक रानडे को साथ लेकर उन गद्दार द्रविड़-बन्धुओं को जा घेरा और उन्हें गोली मार दी। वह 9 फ़रवरी 1899 की रात थी। तदनन्तर वासुदेव चाफेकर को 8 मई को और बालकृष्ण चाफेकर को 12 मई 1899 को यरवदा कारागृह में फांसी दे दी गई। बालकृष्ण चाफेकर सन्‌ 1873 में और वासुदेव चाफेकर सन्‌ 1880 में जन्मे थे। इनके साथी क्रांतिवीर गोविन्द विनायक रानडे को 10 मई 1899 को यरवदा कारागृह में ही फांसी दी गई।

तिलक जी द्वारा प्रवर्तित “शिवाजी महोत्सव’ तथा “गणपति-महोत्सव’ ने इन चारों युवकों को देश के लिए कुछ कर गुजरने हेतु क्रांति-पथ का पथिक बनाया था। उन्होंने ब्रिटिश राज के आततायी व अत्याचारी अंग्रेज अधिकारियों को बता दिया गया कि हम अंग्रेजों को अपने देश का शासक कभी नहीं स्वीकार करते और हम तुम्हें गोली मारना अपना धर्म समझते हैं। इस प्रकार अपने जीवन-दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की चाह नहीं रखी।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *