भारत को रक्तरंजित करने का षड्यंत्र-4

नक्सलवाद और धर्मांतरण के साथ ही समाज में वैमनस्य और खाई उत्पन्न करने वाली गतिविधियों में सन् 1970 के दशक में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई।

कांग्रेस की सरकारों के दौर में वामपंथियों को पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाते हुए भारत के शिक्षा जगत पर अधिकार स्थापित कर लिया। जहाँ कोई समस्या नहीं भी थी; कोई मुद्दा नहीं था, तो वहाँ भी उन्होंने समाज के भीतर भेद उत्पन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जहाँ कहीं कोई महीन सी लकीर थी; उसे उन्होंने खाई बना डाला, तिल का ताड़ बनाते रहे।

शीघ्र ही इस ‘विध्वंसक चौकड़ी’ को एक साझा पहलू मिल गया; ‘जो उन्हें किसी राष्ट्र की सीमा से भी बाहर तक जाकर एकजुट करता था–‘ वो चाहे दुनियां भर के इस्लामिक जिहादी हों, पूरी दुनियां के यीशू में विश्वास लाने की दुकान चलाने वाले ईसाई मिशनरी हों, मूल निवासियों के विरोध के सिद्धांत पर जीने वाले कम्युनिस्ट हों या बाद के दौर के कट्टरपंथी वामपंथी (नक्सल और अर्बन नक्सल)।

इन सबके बीच कुच्छेक मुद्दे साझा हैं और समानता भी है:—

  • भारत के बहुलतावादी समाज को लेकर इनके दिल में गहराई तक समाई घृणा ने इन्हें एकजुट कर दिया है।
  • इन सबने मिलकर समान स्वार्थ आधारित एक साझा मोर्चा बना लिया है।
  • शिक्षा जगत में बैठा अर्बन नक्सल इस एजेंडा के लिए आवश्यक साहित्य रचता है। भारत के हित व सत्य को नकार कर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर झूठ प्रस्तुत करता है।
  • अर्बन नक्सल देश व समाज जीवन को प्रभावित करने वाले विषयों पर नकारात्मक विमर्श (नरेटिव) खड़े करके उन्हें स्थापित करने की कुचेष्टा करता है।
  • वहीं मुस्लिम जिहादियों और ईसाई मिशनरियों के बीच न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लेकर एकजुटता है। अन्यथा ये अपना अपना स्वतंत्र एजेंडा चलाते हैं।
  • परन्तु, इस पूरे एजेंडा की बागडोर इस्लामिक जिहादियों के हाथों में ही है।

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